________________ ग्यारहवें गणधर प्रभास निर्वाण-चर्चा इन सब को दीक्षित हुए सुन कर प्रभास के मन में भी इच्छा हुई कि मैं भी भगवान् के पास जाकर उन्हें वन्दन करू तथा उनकी सेवा करू। यह विचार कर वह भगवान् के पास आया। [ 1972] निर्वाण-सम्बन्धी सन्देह जन्म-जरा-मरण से मुक्त भगवान् ने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होने के कारण उसे 'प्रभास कौण्डिन्य !' के नाम गोत्र से बुलाया। [1973] और वे उसे कहने लगे हे सौम्य ! तुम्हें यह संशय है कि निर्वाण है अथवा नहीं ? इस संशय का कारण यह है कि वेद में एक स्थल पर कहा है कि 'जरामर्य वैतत् सर्व यदग्निहोत्रम्'। इससे तुम यह समझते हो कि जीवन-पर्यन्त जीवों की हिंसा कर यज्ञ करना चाहिए। यह दोष पूर्ण है, अतः इस क्रिया से स्वर्ग तो मिल सकता है किन्तु अपवर्ग या निर्वाण नहीं। अपि च, यह क्रिया मृत्यु पर्यन्त की जाने वाली है, इसलिए अपवर्ग योग्य साधना का अवकाश ही नहीं रहता। जब अपवर्ग योग्य साधना का अवकाश ही नहीं है तब उसका फल अपवर्ग कैसे मिल सकता है ? अतः तुम समझते हो कि वेद में निर्वाण या अपवर्ग का उल्लेख नहीं है। इसके अतिरिक्त 'सैषा गुहा दुरवगाहा' 'ब्रह्मणी परमपरं च, तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इन वेद-वाक्यों के आधार पर तुम्हें यह प्रतीत होता है कि वेद भी मोक्ष (निर्वाण) का प्रतिपादन करते हैं, क्योंकि गुहा अर्थात् मुक्ति उन्हें इष्ट है और वह संसार में आसक्त मनुष्यों के लिए दुरवगाह अथवा दुष्प्रवेश है। पर व अपर ब्रह्म में परब्रह्म का अर्थ भी मोक्ष है। इस प्रकार तुमने वेद-वाक्यों का जो अर्थ समझा है उसके आधार पर इस शंका का होना स्वाभाविक है कि निर्वाण का अस्तित्व है या नहीं ? किन्तु तुम उन वाक्यों का सच्चा अर्थ नहीं जानते, इसीलिए संशय करते हो। मैं तुम्हें उनका सच्चा अर्थ बताऊँगा जिससे तुम्हारा संशय दूर हो जाएगा। [1974] 1. अग्निहोत्र यावज्जीवन कर्तव्य है / शतपथब्राह्मण (12.4.1.1.) में यह पाठ है-"एतद जरामयं सत्वं यदग्निहोत्रं, जरया वा ह्य वास्मान् मुच्यते मृत्युना वा' 2. यह गुहा दुरवगाह है। 3. ब्रह्म दो है-पर व अपर / परब्रह्म सत्य है, अनन्त है, ब्रह्म है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org