________________ 158 गणधरवाद [ गणधर देव-रूप में उत्पाद होता है, वैसे ही समस्त द्रव्यों में उत्पाद व विनाश घटित होते हैं / किन्तु वस्तु का सर्वथा विनाश या उच्छेद नहीं माना जा सकता। कारण यह है कि इसे मानने से समस्त लोक-व्यवहार का उच्छेद हो जाएगा / जैसे कि राजपुत्री की क्रीड़ार्थ बने हुए सोने के घड़े को तोड़ कर राजपुत्र की क्रीडा के लिए यदि सोने का गेंद बनाया जाए तो राजपुत्री को शोक, राजपुत्र को प्रानन्द तथा सोने के स्वामी राजा को औदासीन्य-माध्यस्थ्य होगा। इस प्रकार यदि हम वस्तु को उत्पादादि त्रयात्मक न मानेंगे तो अनुभव सिद्ध लोक-व्यवहार विच्छिन्न हो जाएगा / अतः जीव भी त्रयात्मक होने के कारण मृत्यु के पश्चात् भी कथंचित् अवस्थित ही है। फलतः परलोक का अभाव मान्य नहीं हो सकता। [1666] __ मेतार्य-इस तरह युक्ति से तो परलोक की सिद्धि हो जाती है, किन्तु वेदवाक्यों का समन्वय कैसे होगा ? वेद-वाक्यों का समन्वय भगवान् –वेद का तात्पर्य किसी भी अवस्था में परलोक का अभाव सिद्ध करना नहीं हो सकता। कारण यह है कि यदि परलोक जैसी कोई वस्तु न हो तो वेद का यह विधान असंगत मानना पड़ेगा कि स्वर्ग के इच्छुक को अग्निहोत्रादि करना चाहिए। लोक में रूढ़ दानादि से स्वर्गफल की प्राप्ति की मान्यता भी अयुक्त हो जाएगी / अतः परलोक का अभाव वेदों को इष्ट नहीं है। [1970] इस प्रकार जब जरा-मरण से रहित भगवान् ने मेतार्य की शंका का निराकरण किया, तब उसने अपने तीन सौ शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। [1971] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org