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________________ 157 मेतार्य परलोक-चर्चा घड़े में पूर्वावस्था का व्यय तथा अपूर्व अवस्था की उत्पत्ति होने के कारण वह विनाशी कहलाता है, किन्तु उसका रूप, रस, मिट्टी आदि वही है, अतः उसे अविनाशी भी कहना चाहिए। इसी प्रकार संसार के सभी पदार्थ उत्पाद-विनाश ध्रव स्वभाव वाले समझ लेने चाहिएँ। इससे सभी पदार्थ नित्य भी हैं और अनित्य भी / अतः 'उत्पत्ति होने से' इस हेतु द्वारा जैसे वस्तु को विनाशी सिद्ध किया जा सकता है वैसे ही अविनाशी भी सिद्ध किया जा सकता है। इसलिए विज्ञान भी उत्पत्ति-युक्त होने से अविनाशी भी है और विज्ञान से अभिन्न आत्मा भी अविनाशी सिद्ध होती है; अतः परलोक का अभाव नहीं है। [1964-65] मेतार्य -विज्ञान में उत्पादादि तीनों कैसे घटित होते हैं ? विज्ञान भी नित्यानित्य है भगवान् - घट-विषयक ज्ञान घट-विज्ञान अथवा घट-चेतना कहलाता है और पट-विषयक ज्ञान पट-विज्ञान अथवा पट-चेतना। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न चेतनाओं को समझ लेना चाहिए। हम यह अनुभव करते हैं कि घट-चेतना का जिस समय नाश होता है उसी समय पट-चेतना उत्पन्न होती है, किन्तु जीव रूप सामान्य चेतना उन दोनों अवस्थानों में विद्यमान रहती है। इस प्रकार इस लोक के प्रत्यक्ष चेतन (जीवों) में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सिद्ध हो जाते हैं। यही बात परलोकगत जीव के विषय में कही जा सकती है कि कोई जीव जब इस लोक में से मनुष्यरूप में मर कर देव होता है तब उस जीव का मनुष्य-रूप इह लोक नष्ट होता है तथा देव-रूप परलोक उत्पन्न होता है; किन्तु सामान्य जीव अवस्थित ही है। शुद्ध द्रव्य की अपेक्षा से उस जीव को इहलोक या परलोक नहीं कहते, किन्तु मात्र जीव कहते हैं। वह अविनाशी ही है / इस प्रकार इस जीव के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभाव युक्त होने के कारण परलोक का अभाव सिद्ध नहीं होता। [1966-67] मेतार्य-सभी पदार्थों को उत्पादादि त्रि-स्वभाव युक्त मानने की क्या आवश्यकता है ? केवल उत्पाद और व्यय मानने में क्या दोष है ? यह बात अनुभव सिद्ध है कि उत्पत्ति से पूर्व घट था ही नहीं, फिर उसे उत्पत्ति से पूर्व विद्यमान मानने का क्या उद्देश्य है ? भगवान्-यदि घटादि सर्वथा असत् हो, द्रव्यरूप में भी विद्यमान न हो, तो उसकी उत्पत्ति ही सम्भव नहीं है। यदि सर्वथा असत की भी उत्पत्ति मानी जाएगी तो खर-विषाण भी उत्पन्न होना चाहिए। खर-विषाण कभी उत्पन्न नहीं होता तथा घटादि पदार्थ कदाचित् उत्पन्न होते हैं, अतः उत्पत्ति सर्वथा असत् की नहीं प्रत्युत् कथंचित् सत् की होती है। इसी प्रकार जो सत् है उसका सर्वथा विनाश भी नहीं होता। यदि सत का सर्वथा विनाश माना जाएगा तो क्रमशः सभी वस्तुओं के नष्ट हो जाने पर सर्वोच्छेद का प्रसंग पा जाएगा। [1668] अतः अवस्थित या विद्यमान का ही किसी एक रूप में विनाश तथा दूसरे रूप में उत्पाद मानना चाहिए; जैसे सत्रूप जीव का मनुष्य-रूप में विमाश और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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