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________________ 156 गणधरवाद [ गणधर कथंचित् नित्य भी कहलाएगी। अतः यह कहा जा सकता है कि विज्ञान नित्य है क्योंकि वह उत्पत्तिशील है, जैसे कि घट / कथंचित् नित्य-विज्ञान से अभिन्न होने के कारण प्रात्मा भी कथंचित् नित्य होगी / फिर परलोक का अभाव कैसे होगा ? [1961] अपि च, तुमने विज्ञान को विनाशी सिद्ध करने के लिए 'उत्पत्तिशील होने से' हेतु दिया है। वह हेतु प्रत्यनुमान अर्थात् विरोधी अनुमान उपस्थित होने से विरुद्ध व्यभिचारी भी है / अर्थात् विज्ञान में तुमने उसकी उत्पत्ति के कारण अनित्यता सिद्ध की है और तुम अपने हेतु को अव्यभिचारी मानते हो, किन्तु इसके विपरीत नित्यता को सिद्ध करने वाला अन्य अव्यभिचारी हेतु भी है। इससे तुम्हारा हेतु दूषित कहलाएगा। मेतार्य-प्रत्यनुमान कौनसा है ? घट भी नित्यानित्य है भगवान्-विज्ञान सर्वथा विनाशी नहीं हो सकता, क्योंकि वह वस्तु है। जो वस्तु होती है वह घट के समान एकान्त विनाशी नहीं होतो; क्योंकि वस्तु पर्याय की अपेक्षा से विनाशी होकर भी द्रव्य की अपेक्षा से अविनाशी है। __ मेतार्य-अापका दृष्टान्त घट उत्पत्ति युक्त होने से विनाशी ही है, आप उसे अविनाशी कैसे कहते हैं ? विनाशी घट के आधार पर आप विज्ञान को अविनाशी कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? [1962] भगवान् -पहले यह समझना आवश्यक है कि घट क्या है ? रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श ये गुण, संख्या, प्राकृति, मिट्टी-रूप द्रव्य तथा जलाहरण आदि रूप शक्ति ये सब मिल कर घट कहलाते हैं। वे रूपादि स्वयं उत्पाद-विनाश-ध्रौव्यात्मक हैं। अतः घट को भो अविनाशी कहा जा सकता है। उसके उदाहरण से विज्ञान को भी अविनाशी सिद्ध किया जा सकता है / [1663] ___ मेतार्य-इस बात को कुछ और स्पष्ट करें तो यह समझ में आ सकेगी। भगवान् मिट्टी के पिण्ड का गोल आकार तथा उसकी शक्ति ये उभय रूप पर्याय जिस समय नष्ट हो रही हों, उसी समय वह मिट्टी का पिण्ड घटाकार और घट-शक्ति इन उभय रूप पर्याय स्वरूप में उत्पन्न होता है / इस प्रकार उसमें उत्पाद व विनाश अनुभव सिद्ध हैं, अतः वह अनित्य है। किन्तु पिण्ड में विद्यमान रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा मिट्टी रूपी द्रव्य का तो उस समय भी उत्पाद या विनाश कुछ नहीं होता, वे सदा अवस्थित हैं; अतः उनकी अपेक्षा से घट नित्य भी है। साराँश यह है कि मिट्टी द्रव्य का एक विशेष आकार और उसकी शक्ति अनवस्थित है। अर्थात् मिट्टी द्रव्य जिस पिण्ड रूप में था, वह अब घटाकार रूप में परिणत हो गया, पिण्ड में जलाहरण आदि की शक्ति नहीं थी, वह अब घटाकार में आ गई / इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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