________________ मेतार्य] परलोक-चर्चा 155 एकान्त नित्य में कर्तृत्वादि नहीं अपि च, अनित्य-ज्ञान से भिन्न होने के कारण यदि आत्मा को एकान्त नित्य माना जाए तो आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्व भी घटित नहीं हो सकता, फिर परलोक का तो कहना ही क्या है ? यदि नित्य में भी कर्तृत्व और भोक्तृत्व हों तो वे हमेशा होने चाहिएं। कारण यह है कि नित्य वस्तु सदा एकरूप होती है, किन्तु वे जीव में सर्वदा नहीं होते। अतः जीव को सर्वथा नित्य मानने से उसमें कर्तृत्व की सिद्धि नहीं होती। अात्मा के कर्ता न होने पर भी परलोक का अस्तित्व माना जाए तो सिद्धों के लिए भी परलोक मानना पड़ेगा। भोक्तृत्व के अभाव में भी परलोक की मान्यता व्यर्थ है। यदि परलोक में प्रात्मा कर्म-फल न भोगे तो परलोक की सार्थकता ही क्या है ? अज्ञानी अात्मा का संसरण नहीं पुनश्च, जैसे अज्ञानी होने के कारण लकड़ी को संसरण-एक भव से दूसरे भव में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार यदि आत्मा भी ज्ञान से भिन्न होने के कारण आकाश के समान अज्ञानी हो तो उसका संसरण भी घटित नहीं होता और आकाश के समान अमूर्त होने के कारण भी आत्मा का संसार नहीं माना जा सकता। जब अात्मा में संसार का ही अभाव होगा तो परलोक की सिद्धि कैसे हो सकती है ? [1660] परलोक सिद्धि-प्रात्मा अनित्य है, अतः नित्य भी है भगवान्-तुम ने आत्मा को विनश्वर (अनित्य) सिद्ध किया है / तुम्हारे कथन का तात्पर्य यह है कि जो उत्पत्तिशील हो उसे घटादि के समान अनित्य होना चाहिए / विज्ञान उत्पत्तिशील होने के कारण अनित्य है, अतः विज्ञानाभिन्न प्रात्मा भी अनित्य माननी चाहिए। तुम शायद यह भी मानते हो कि जो पर्याय होती है, वह अनित्य होती है, जैसे स्तम्भादि की नवीनत्व, पुराणत्व आदि पर्याय / विज्ञान भी पर्याय होने के कारण अनित्य है। इसलिए यदि आत्मा भी विज्ञानमय है तो वह भी अनित्य ही होगी। इससे तुम यह परिणाम निकालते हो कि आत्मा का परलोक नहीं है, किन्तु तुम्हारी यह मान्यता भ्रमपूर्ण है। कारण यह है कि जिन हेतुत्रों के आधार पर तुम विज्ञान को अनित्य सिद्ध करते हो, उनके आधार पर ही उसे नित्य सिद्ध किया जा सकता है / अर्थात् जो उत्पत्तिशील होता है या पर्याय होता है वह सर्वथा विनाशी न होकर अविनाशी भी होता है। मेतार्य---यह कैसे सम्भव है ? भगवान्-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वस्तु का स्वभाव है। अर्थात् किसी भी वस्तु में केवल उत्पाद नहीं होता। जहाँ उत्पाद होता है वहाँ ध्रौव्य भी है। अतः - यदि उत्पत्ति के कारण वस्तु कथंचित् अनित्य कहलाती है तो ध्रौव्य के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org