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________________ 154 गणधरवाद [ गणधर मेतार्य-आत्मा में लक्षण भेद कैसे है ? भगवान्-आत्मा का लक्षण उपयोग है। राग, द्वेष, कषाय तथा विषयादि भेदों के कारण अनन्त अध्यवसाय भेद होने से वह उपयोग अनन्त प्रकार का हग्गोचर होता है, अतः उसकी आधारभूत आत्मा भी अनन्त होनी चाहिए। - मेतार्य-अनन्त होकर भी आत्मा सर्वव्यापी क्यों नहीं होती ? आत्मा देह-परिमारण है भगवान्—ात्मा शरीर में ही व्याप्त है, वह सर्वव्यापक नहीं है, क्योंकि उसके गुण शरीर में ही उपलब्ध होते हैं। जैसे स्पर्श का अनुभव समस्त शरीर में होता है और अन्यत्र नहीं होता, इसलिए स्पर्शनेन्द्रिय केवल शरीर-व्यापी ही है; वैसे ही आत्मा को भी शरीर-व्याप्त ही मानना चाहिए। मेतार्य-आत्मा को निष्क्रिय किसलिए नहीं माना जाता? प्रारमा सक्रिय है भगवान्-अात्मा निष्क्रिय नहीं, क्योंकि वह देवदत्त के समान भोता है / यह सब चर्चा इन्द्रभूति से की है। अतः उसके समान तुम भी आत्मा को अनन्त, असर्वगत तथा निष्क्रिय मान लो। [1657] मेतार्य-प्रमाण-सिद्ध होने के कारण यह माना जा सकता है कि आत्मा अनेक हैं, किन्तु उसका देव-नारक रूप परलोक तो दिखाई नहीं देता, फिर उसे क्यों माना जाए? देव-नारक का अस्तित्व भगवान्-इस लोक से भिन्न देव-नारक आदि परलोक भी तुम्हें स्वीकार करने चाहिए, क्योंकि मौर्य के साथ की गई चर्चा में देव-लोक की तथा अकम्पित के साथ की गई चर्चा में नारक-लोक की प्रमाणतः सिद्धि की गई है। अतः उनके समान तुम्हें भी देव-नारक का अस्तित्व मानना चाहिए। [1658] परलोक के अभाव का पूर्व पक्ष : विज्ञान अनित्य होने से प्रात्मा अनित्य - मेतार्य-जीव तथा विज्ञान का भेद मानें या अभेद, किन्तु उससे परलोक का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। यदि जीव को विज्ञानमय अर्थात् विज्ञान से अभिन्न माना जाए तो विज्ञान अनित्य होने के कारण नष्ट हो जाता है, इसलिए जीव भी नष्ट ही समझा जाएगा; ऐसी दशा में परलोक किसका होगा ? अतः अभेद पक्ष में परलोक नहीं माना जा सकता। यदि जीव को विज्ञान से भिन्न माना जाए तो जीव ज्ञानी नहीं हो सकता। जैसे ज्ञान आकाश से भिन्न है, इसलिए आकाश अनभिज्ञ या अज्ञानी समझा जाता है, वैसे ही जीव की भी यही दशा होगी। [1956] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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