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________________ मेतार्य ] परलोक-चर्चा 153 अद्वैत प्रात्मा का संसरग नहीं होता पुनश्च, यदि प्रतिपिण्ड में भिन्न-स्वरुप अनेक चैतन्य-धर्मों को न मानकर मात्र . सकल चैतन्याश्रय-रूप एक ही सर्वव्यापी तथा निष्क्रिय ऐसी आत्मा मानी जाए जिसके विषय में कहा गया है कि "प्रत्येक भूत में व्यवस्थित एक ही भूतात्मा है और वह एक होकर भी एकरूप में तथा बहुरूप में जल में चन्द्र-बिम्ब के समान दिखाई देती है।'' तो भो परलोक की सिद्धि नहीं हो सकती। कारण यह है कि वह सर्वगत और निष्क्रिय होने से आकाश के समान प्रत्येक पिण्ड में व्याप्त है, अतः उसका संसरण सम्भव नहीं है। संसरण के अभाव में परलोक-गमन कैसे सम्भव हो सकता है ? [1954] और भी, इस मनुष्य लोक की अपेक्षा से देव व नारक का भव परलोक कहलाता है, किन्तु वह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। इसलिए भी परलोक की सत्ता नहीं है। इस प्रकार युक्ति पूर्वक विचार करने पर तुम्हें परलोक का अभाव ज्ञात होता है, किन्तु वेद-वाक्यों में लोक का प्रतिपादन भी है। अतः तुम्हें सन्देह है कि परलोक है या नहीं ? [1655] मेतार्य-आप ने मेरी शंका का ठीक-ठीक प्रतिपादन किया है। कृपया अब उस का निवारण करें। संशय निवारण -परलोक-सिद्धि, प्रात्मा स्वतन्त्र द्रव्य है भगवान्-भूत (इन्द्रिय) इत्यादि से भिन्न-स्वरूप आत्मा का धर्म चैतन्य है तथा यह अात्मा जातिस्मरण आदि हेतुओं द्वारा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य सिद्ध होती है। इस विषय को विशेष चर्चा वायुभूति से की जा चुकी है / अतः तुम्हें भी उसके समान अात्मा स्वीकार करनी चाहिए। [1956] मेतार्य-अनेक आत्माओं के स्थान पर एक ही सर्वगत व निष्क्रिय आत्मा क्यों न मानी जाए? प्रात्मा अनेक हैं भगवान --आत्म द्रव्य को एक, सर्वगत और निष्क्रिय नहीं माना जा सकता। कारण यह है कि उनमें घटादि के समान लक्षण भेद हैं। अतः अनेक घटादि के सदृश आत्मा को भी अनेक मानना चाहिए / इस सम्बन्ध में विशेष विचारणा इन्द्रभूति के साथ हो चुकी है, अतः तुम भी उसकी तरह आत्मा को अनेक मान लो। 1. एक एव हि भूतात्मा भते भते व्यवस्थितः / एकधा बहुधा चैत्र दृश्यते जनचन्द्रवत् / / ब्रह्मपन्दुनिषद् -11 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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