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________________ दसवें गणधर मेतार्य परलोक-चर्चा यह सुनकर कि वे सब दीक्षित हो चुके हैं, मेतार्य ने विचार किया, "मैं भी भगवान् के पास जाऊँ, उन्हें वन्दन करु तथा उनकी सेवा करु।" तत्पश्चात् वह भगवान् के पास आ गया। [1946] जाति-जरा-मरण से मुक्त भगवान् ने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होने के कारण उसे 'मेतार्य कौण्डिन्य !' इस नाम-गोत्र से बुलाया और कहा / [1950] परलोक-विषयक सन्देह ___ तुम्हें संशय है कि परलोक है या नहीं? तुमने विज्ञानवन एवैतेभ्यो भूते:' इत्यादि परस्पर विरोधी वेद-वाक्य सुने हैं। अतः तुम्हें संशय होना स्वाभाविक है। किन्तु तुम उन वेद-वाक्यों का यथार्थ अर्थ नहीं जानते, इसीलिए सन्देह में पड़े हो। मैं तुम्हें उनका सच्चा अर्थ वताऊगा, उससे तुम्हारे संशय का निवारण हो जाएगा। [1951] भूत-धर्म चैतन्य का भूतों के साथ नाश . तुम्हें यह प्रतीत होता है कि गुड़, धावड़ी आदि मद्य के अंगों या कारणों से जैसे मद-धर्म भिन्न नहीं होता, वैसे ही पृथ्वी आदि भूतों से यदि चैतन्य-धर्म भिन्न न हो तो परलोक मानने का कोई भी आधार नहीं रह जाता। कारण यह है कि भूतों के नाश के साथ चैतन्य का भी नाश हो जाता है, फिर परलोक किसलिए और किसका मानना ? जो धर्म जिससे अभिन्न हो वह उसके नाश के साथ ही नष्ट हो जाता है / जैसे पट का शुक्लत्व धर्म पट से अभिन्न है, पट का नाश होने पर उसका भी नाश हो जाता है वैसे ही यदि भूतों का धर्म चैतन्य भूतों से अभिन्न हो तो भूतों के नाश के साथ उसका भी नाश हो जाएगा। ऐसी दशा में परलोक मानने की आवश्यकता नहीं रहती। [1652] भूतों से उत्पन्न चैतन्य अनित्य है यदि चैतन्य को भूतों से भिन्न माना जाए तो भी परलोक स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं रहती। कारण यह है कि भूतों से उत्पन्न होने के कारण वह अनित्य है / जैसे अरणी नामक काष्ठ से उत्पन्न होने वाली अग्नि विनाशी है, वैसे ही भूतों से उत्पन्न होने वाला चैतन्य भी विनाशी होना चाहिए। अतः भूतों से भिन्न होने पर भो वह नष्ट हो जाएगा। फिर परलोक किसका मानना ? [1953] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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