________________ अचलभ्राता ] पाप-पुण्य-चर्चा 151 जैसी वस्तु ही न हो तो स्वर्ग के उद्देश्य से अग्निहोत्रादि बाह्य अनुष्ठान का वेद में जो विधान है वह असम्बद्ध हो जाता है तथा लोक में दान का फल पुण्य और हिंसा का फल पाप माना जाता है, यह मान्यता भी असंगत हो जाती है। अतः वेद का अभिप्राय पुण्य-पाप का निषेध नहीं हो सकता। [1947] इस प्रकार जब जन्म-मरण से मुक्त भगवान् ने उसके संशय को दूर किया, तब उसने अपने तीन सौ शिष्यों के साथ दोक्षा ले ली। [1948] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org