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________________ 150 गणधरवाद [ गणधर में अनुभूत होना चाहिए-अर्थात् केवल दुःख या सुख का कभी भी अनुभव नहीं होना चाहिए, दुःख और सुख हमेशा मिश्रित रूप में ही अनुभव में आना चाहिए। किन्तु ऐसी बात नहीं है / देवों में विशेषतः केवल सुख का अनुभव है तथा नारकादि में विशेषतः केवल दुःख का। संकीर्ण कारण से उत्पन्न कार्य में भी संकीर्णता ही होनी चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि जिनका संकर हो उनमें से कोई एक ही उत्कट रूप में कार्य में उत्पन्न हो और दूसरे का कोई भी कार्य उत्पन्न न हो। अतः सुख के अतिशय के निमित्त को दुःख के अतिशय के निमित्त से भिन्न ही मानना चाहिए। अचलभ्राता-पाप-पुण्य संकीर्ण होने से चाहे एक रूप माना जाए, किन्तु जब पुण्यांश बढ़ जाए और पापांश की हानि हो तब सुखातिशय का अनुभव हो सकता है तथा जब पापांश की वृद्धि से पुण्यांश की हानि हो तब दुःखातिशय का का अनुभव हो सकता है। इस प्रकार पुण्य-पाप को संकीर्ण मान कर भी देवों में सुखातिशय तथा नारकादि में दुःखातिशय का अनुभव शक्य है। फिर पुण्य व पाप को स्वतन्त्र क्यों माना जाए? भगवान्-यदि पुण्य व पाप सर्वथा एक रूप हों तो एक की वृद्धि होने पर दूसरे की भी वृद्धि होनी चाहिए। तुम्हारे कथनान सार ऐसा तो होता नहीं है, क्योंकि पाप की वृद्धि होने पर पुण्य की हानि होती है तथा पुण्य की वृद्धि के समय पाप की हानि होती है। अतः पुण्य व पाप को एकरूप न मान कर भिन्न रूप ही मानना चाहिए। जैसे देवदत्त की वृद्धि होने पर यज्ञदत्त की वृद्धि नहीं होती, अतः वे दोनों भिन्न हैं, वैसे ही पाप की वृद्धि के समय पुण्य की वृद्धि नहीं होती, इसलिए ये दोनों भी स्वतन्त्र मानने चाहिएँ। वस्तुतः ये दोनों यद्यपि पुण्य व पाप के रूप में भिन्न हैं तथापि कर्म रूप में दोनों अभिन्न हैं। यदि तुम यह बात स्वीकार करते हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। इस प्रकार पुण्य-पाप सम्बन्धी संकीर्ण पक्ष का भी निरास हो जाता है। अतः पुण्य व पाप दोनों स्वतन्त्र हैं, यह चौथा पक्ष ही युक्तियुक्त सिद्ध होता है। इसीलिए स्वभाववाद को भी नहीं माना जा सकता। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा अग्निभूति के साथ हो चुकी है। अतः पुण्य व पाप को स्वतन्त्र ही मानना चाहिए और तुम्हें इस विषय में संशय नहीं करना चाहिए। [1946] अचल भ्राता-तो फिर वेद में पुण्य-पाप का निषेध क्यों किया गया है ? वेद-वाक्यों का समन्वय भगवान्–'संसार म केवल पुरुष (ब्रह्म) ही है तथा उससे बाह्य अन्य कुछ भी नहीं हैं।' वेद का अभिप्राय इस बात का प्रतिपादन करना नहीं है / यदि पुण्य-पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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