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________________ प्रचलभ्राता] पुण्य-पाप-चर्चा 149 इन 42 प्रकृतियों को छोड़ कर शेष 82 कर्म प्रकृतियाँ अशुभ अर्थात् पाप प्रकृतियाँ हैं। उनका विवरण इस प्रकार है-न्यग्रोधपरिमण्डल-सादि-कुब्ज-वामनहुण्ड ये पाँच संस्थान, अप्रशस्तविहायोगति, ऋषभनाराच-नाराच-अर्धनाराचकीलिका-छेदवृत्त ये पाँच संहनन, तियग्गति, तिर्यग् आनुपूर्वी, असातावेदनीय, नीच गोत्र, उपघात, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, नरक गति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, अशुभवर्ण, अशुभगन्ध, अशुभरस, अशुभस्पर्श, केवल ज्ञानावरण, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्तानद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण मान, अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण लाभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण मान. प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण लोभ, मिथ्यात्व. मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया, संज्वलन लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुसक वेद, दानान्तराय, लाभान्त राय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय। ये सब मिल कर 82 प्रकृतियाँ हैं / अचलभ्राता---मिथ्यात्व के प्रभेदों में सम्यक्त्व भी है। उसे आप प्रशभ या पाप प्रकृति कसे कहते हैं ? यदि यह पाप प्रकृति है तो उसे सम्यक्त्व किसलिए कहा जाता है ? भगवान्-जीव की रुचि के रूप जो सम्यक्त्व होता है वह तो शुभ होता है, किन्तु यहाँ उसका विचार नहीं किया गया है। यहाँ मिथ्यात्व के शुद्ध किए गए पुद्गलों को सम्यक्त्व कहा गया है और वे तो शंकादि अनर्थ में निमित्त भूत होने के कारण अशुभ या पाप ही हैं। इन पुद्गलों को उपचार से सम्यक्त्व इसलिए कहते हैं कि ये जीव की रुचि को प्रावृत्त नहीं करते। वस्तुतः ये पुद्गल मिथ्यात्व के ही हैं। उक्त पुण्य तथा पाप के सविपाक और अविपाक भेद भी हैं। जो प्रकति जिस रूप में बान्धी गई हो उसी रूप में उस का विपाक हो तो उसे सविपाक प्रकति कहते हैं, तथा यदि उसके रस को मन्द कर अथवा नीरस कर उसके प्रदेशों का उदय भोगने में आए तो वह अविपाकी कहलाती है / पुण्य-पाप के स्वातन्त्र्य का समर्थन इतनी चर्चा से यह बात तो सिद्ध हो गई है कि पुण्य और पाप संकीर्ण नहीं प्रत्युत स्वतन्त्र हैं। यदि वे संकीर्ण हों तो सभी जीवों को उनका कार्य मिश्ररूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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