________________ 148 गणधरवाद [ गणधर अचलभ्राता---गाय तथा सर्प के दृष्टान्त से यह सिद्ध हुआ कि अमुक जीव में कर्म का शुभ परिणाम तथा अमुक जीव में कर्म का अशुभ परिणाम उत्पन्न करने की शक्ति है, किन्तु इस बात की पुष्टि के लिए कौनसा दृष्टान्त होगा कि एक ही जीव कर्म के शुभ तथा अशुभ दोनों परिणामों को उत्पन्न करने में समर्थ है ? भगवान्--एक ही शरीर में विशिष्ट अर्थात् एकरूप आहार ग्रहण किया जाता है, फिर भी उसमें से सार और प्रसार रूप दोनों परिणाम तत्काल हो जाते हैं / हमारा शरीर खाए हुए भोजन को रस, रक्त तथा माँस रूप सार तत्व में और मलमूत्र जैसे असार तत्व में परिणत कर देता है। यह बात सवजन सिद्ध है। इसी प्रकार एक ही जीव गृहीत साधारण कर्म को अपने शुभाशुभ परिणाम द्वारा पुण्य तथा पाप रूप में परिणत कर देता है / [1945] __ अचलभ्राता-शुभ हो तो पुण्य और अशुभ हो तो पाप, यह बात तो समझ में आ गई है, किन्तु कृपया यह बताएँ कि कर्म प्रकृतियों में कौनसी शुभ हैं और कौन सी अशुभ ? पुण्य-पाप प्रकृति की गणना भगवान्-सातावेदनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, पुरुष वेद, रति, शुभायु, शुभनाम, शुभगोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्य प्रकृतियाँ हैं / शुभायु में देव, मनुष्य तथा तिर्यच प्रायू का समावेश है। शुभनाम कर्म प्रकृति में देवद्विक अर्थात् देवगति तथा देवानुपूर्वी, यशःकीर्ति, तीर्थंकर आदि 37 प्रकृतियों का समावेश हो जाता है। शुभगोत्र का अर्थ है उच्च गोत्र / ये सब मिलकर 46 प्रकृतियाँ शुभ होने के कारण पुण्य कहलाती हैं तथा शेष अशुभ होने से पाप कहलाती हैं / यदि मोहनीया के सभी भेदों को (क्योंकि वे जीव में विपर्यास के कारण हैं) अशुभ अथवा पाप प्रकृति में समाविष्ट किया जाए तो पुण्य प्रकृतियों की संख्या 42 रह जाती है / वह इस प्रकार है— "सातावेदनीय, उच्चगोत्र, मनुष्य-तिर्यंच-देवायु, तथा नामगोत्र की निम्न 37 प्रकृतियाँ-देवद्विक-देवगति तथा देवानुपूर्वी, मनुष्यद्विक-मनुष्यगति तथा मनुष्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, पाँच शरीर-औदारिक-वैक्रिय-आहारक तैजस और कार्मण. अंगोपांग त्रिक - औदारिक-वैक्रिय-आहारक / अगोपांग, प्रथम संघयण-वज्रऋषभनाराच, चतुरस्रसंस्थान, शुभवर्ण, शुभ रस, शुभगन्ध, शुभस्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यशःकीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर / ये सब 42 प्रकृतियाँ तीर्थंकरों ने पुण्य प्रकृतियाँ वतलाई हैं।' 1. किसी प्राचार्य के मतानुसार मोहनीय की ए भी प्रकृति शुभ नहीं है। 2. सायं उच्चागोयं नरतिरिदेवा उयाई तह नामे / देवदुगं मणुयदुगं पणि दजाई य तणुपणगं / / अंगोवंगाणतिगं पढम संघयणमेवसं ठाणं / सुभवण्णा इचउक्कं अगुरुलहू तह य पर घायं / सं पायावं उज्जोय विहगई विय पसत्था / तस-बायर-पज्जतं पत्त यथिरं सुभं सुभगं / सस्सर पाएज्ज जसं निम्मिण तित्ययरमेव एयायो। बायालं पगईअो पूण्णं ति जिणेहि भणि प्रायो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org