________________ अचभ्राता ] पाप-पुण्य-चर्चा 147 भी एक ऐसा स्वभाव विशेष है कि जिसके कारण वह उक्त रीति से कर्म का परिणमन करते हुए ही कर्म का ग्रहण करता है / पुनश्च, कर्म का भी यह स्वभाव विशेष है कि शुभ-अशुभ अध्यवसाय युक्त जीव के द्वारा शुभ-अशुभ परिणाम को प्राप्त होकर ही वह जीव से गृहीत होता है। इसी प्रकार जीव कर्म में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश के अल्प भाग तथा अधिकांश भाग का वैचित्र्य भी ग्रहण-काल में ही निर्मित करता है / यही बात निम्न गाथा में कही गई है ___ “जीव कर्म-पुद्गल के ग्रहण के समय कर्म प्रदेशों में अपने अध्यवसाय के कारण सब जीवों से अनन्त गुणा रसाविभाग गुण उत्पन्न करता है।" "कर्म प्रदेशों में सब से थोड़ा भाग आयु कर्म का है। उससे अधिक किन्तु परस्पर समान भाग नाम और गोत्र का है। उससे अधिक भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय का है, किन्तु इन तीनों का परस्पर भाग समान ही है। इनसे अधिक भाग मोहनीय का है। सर्वाधिक भाग वेदनीय का है। वेदनीय सुख-दुःख का कारण है, अतः उसका भाग सर्वाधिक है। शेष कर्मों का भाग उनके स्थिति बन्ध के परिमाण का है।" [1643] अचलभ्राता -आपने आहार का उदाहरण दिया, कृपया उसका समन्वय करें ताकि अच्छी तरह समझ में आ जाए। ___ भगवान्-आहार के समान होने पर भी परिणाम और आश्रय की विशेषता के कारण उसके विभिन्न परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं; जैसे कि गाय तथा सर्प को एक ही आहार देने पर भी गाय द्वारा खाया गया पदार्थ दूध रूप में परिणत होता है तथा सप द्वारा खाया गया विष रूप में। इस बात में जैसे खाद्य पदार्थ में भिन्न-भिन्न पाश्रय में जाकर तत्-तद्रूप में परिणत होने का परिणाम स्वभाव विशेष है वैसे ही खाद्य का उपयोग करने वाले आश्रय में भी उन वस्तुओं को तत्तद्रूप में परिणत करने का सामर्थ्य विशेष है। इसी प्रकार कर्म में भी भिन्न-भिन्न शुभ या अशुभ अध्यवसाय वाले अपने आश्रय रूप जीव में जाकर शुभ या अशुभ रूप में परिणत हो जाने का सामर्थ्य है / आश्रय-रूप जीव में भी भिन्न-भिन्न कर्मों का ग्रहण कर उन्हें शुभ या अशुभ रूप में अर्थात् पुण्य या पाप रूप में परिणत कर देने की शक्ति है / [1944] 1. गहणसमयम्मि जीवो उपाएइ गुणे सपच्चय प्रो। ___ सव्व जीवाणंतगुणे कम्मपएसेसु सम्वेसु / / कर्मप्रकृति-बन्धन क रण-गाथा 29 / 2. प्रायुगभागो थोवो नामे गोए समो तमो अहिगो / प्रावरणमन्तराए सरिसो अहिगो य मोहे वि // सव्वुवरि वेयणीए भागो अहियो उ कारणं किन्तु / सुहदुःखकारणन्ता ठिई विसेसेण सेसासु // -बन्धशतक गाथा 89-90; तुलना-कर्मप्रकृतिणि बन्धनकरण गाथा 28, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org