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________________ 146 गणधरवाद [ गणधर कर्म-ग्रहण की प्रक्रिया भगवान् -जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर तेल लगा कर नग्न शरीर ही खुले स्थान में बैठे तो तेल के परिमाण के अनुसार उसके समस्त शरीर पर मिट्री चिपक जाती है, वैसे ही राग-द्वेष से स्निग्ध जीव भी कर्म-वर्गणा में विद्यमान कर्म योग्य पुद्गलों को ही पाप-पुण्य रूप में ग्रहण करता है। कर्म-वर्गणा के पुद्गलों से भी सूक्ष्म परमाणु का अथवा स्थूल औदारिकादि शरीर योग्य पुद्गलों का कर्म रूप में ग्रहण नहीं होता / अपि च, जीव स्वयं आकाश के जितने प्रदेशों में होता है उतने ही प्रदेशों में विद्यमान तद्रूप पुद्गलों का अपने सर्व प्रदेश में ग्रहण करता है। इसी विषय को निम्न गाथा में कहा गया है—“एक प्रदेश में विद्यमान (अर्थात् जिस प्रदेश में जीव हो उस प्रदेश में विद्यमान) कर्म योग्य पुद्गल को जीव अपने सर्व प्रदेश से बाँधता है। इसमें जीव के मिथ्यात्वादि हेतु हैं। यह बन्ध सादि अर्थात् नवीन भी होता है तथा परम्परा से अनादि भी।" उपशम श्रेणी से पतित जीव सर्वथा नए रूप से मोहनीयादि कर्म का बन्ध करता है और जिस जीव ने उपशम श्रेणी प्राप्त ही न की हो उसका बन्ध अनादि ही कहलाता है। [1941] अचलभ्राता-इस समस्त लोक के प्रत्येक प्राकाश प्रदेश में पुद्गल परमाणु शुभाशुभ के भेद के बिना ही भरे हुए हैं; अर्थात् अमुक आकाश प्रदेश में शुभ पुद्गल तथा अन्यत्र अशुभ पुद्गल हों ऐसी किसी प्रकार की भी व्यवस्था के बिना ही केवल अव्यवस्थित रूप में पुद्गल लोक में खचाखच भरे पड़े हैं। जैसे पुरुष का तेलयुक्त शरीर छोटे और बड़े रजकणों का तो भेद करता है किन्तु शुभाशुभ का भेद किए बिना ही अपने संसर्ग में आने वाले पुद्गलों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीव भी स्थूल तथा सूक्ष्म के विवेक से कर्म योग्य पुद्गलों का ग्रहण करे, यह बात तो उचित है, किन्तु ग्रहण-काल में ही वह उनमें शुभाशुभ का विभाग कर दोनों में से एक का ग्रहण करे और दूसरे का नहीं, यह कैसे सम्भव है ? [1942] भगवान्-जब तक जीव ने कर्मपुद्गल का ग्रहण नहीं किया हो तब तक वह पुद्गल शुभ या अशुभ किसी भी विशेषण से विशिष्ट नहीं होता, अर्थात् वह अविशिष्ट ही होता है। किन्तु जीव उस कर्म पुद्गल का ग्रहण करते ही आहार के समान अध्यवसाय-रूप परिणाम तथा आश्रय की विशेषता के कारण उसे शुभ या अशुभ रूप में परिणत कर देता है / कहने का तात्पर्य यह है कि जीव का जैसा शुभ या अशुभ अध्यवसाय रूप परिणाम होता है, उस के आधार पर वह ग्रहण-काल में ही कर्म में शुभत्व या अशुभत्व उत्पन्न कर देता है तथा कर्म के आश्रयभूत जीव का 1. एगपएसोगाढं सव्वपएसेहिं कम्मुणो जोग्गं / बंधइ जहुत्तहेउ साइयमणाइयं वावि / पंच-संग्रह गाथा 284. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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