________________ अचलभ्राता ] पाप-पुण्य-चर्चा 145 अशुभ ही होता है, किन्तु वह पूर्वगृहीत कर्म-प्रकृति को शुभ से अशुभ, अथवा अशुभ से शुभ अथवा शुभाशुभ में भिन्न-भिन्न अध्यवसायों के आधार पर परिणत कर सकता है; इस से पूर्वगृहीत मिथ्यात्व रूप अशुभ कर्म का विशुद्ध परिणाम से शोधन कर सम्यक्त्व रूप शुभ कर्म में परिवर्तन किया जा सकता है तथा अविशुद्ध परिणाम से सम्यक्त्व के शुभ पुद्गलों का मिथ्यात्व रूप में परिवर्तन किया जा सकता है / मिथ्यात्व के कुछ कर्म-पुद्गलों को अर्द्धविशुद्ध किया जा सकता है। इस प्रकार सत्तागत कर्म की अपेक्षा से मिश्र मोहनीय का सद्भाव सम्भव है / ग्रहणकाल में किसी मिश्र मोहनीय कर्म का बन्ध नहीं होता। [1938] अचलभ्राता-कर्म प्रकृति के अन्योन्य संक्रम का क्या नियम है ? कर्म संक्रम का नियम भगवान्-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय इन आठ मूल कर्म-प्रकृतियों में तो परस्पर संक्रम हो ही नहीं सकता। अर्थात् एक मूल प्रकृति दूसरी प्रकृति रूप में परिणत नहीं की जा सकती, किन्तु उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रम सम्भव है। इस नियम में भी यह अपवाद है कि प्रायुकर्म की मनुष्य, देव, नारक, तिर्यंच इन चार उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता तथा मोहनीय कर्म की दर्शनमोह तथा चारित्रमोह रूप दो उत्तर प्रकृतियों में भी परस्पर संक्रम नहीं होता। इनके अतिरिक्त कर्म की शेष उत्तर प्रकृतियों में परस्पर सक्रम को भजना है; जो इस प्रकार है-पाँच ज्ञानावरण, नव दर्शनावरण, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, पाँच * अन्त राय ये सब मिल कर 47 ध्र वबन्धिनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं। इन सब का अपनी-अपनी मूल प्रकृति से अभिन्न रूप उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रम हमेशा होता है। शेष समस्त अध्र वबन्धिनी प्रकृतियों के विषय में यह नियम है कि अपनी-अपनी मूल प्रकृति से अभिन्न रूप उत्तर प्रकृतियों में से जो अबध्यमान होती है वही बध्यमान प्रकृति में संक्रांत होती है, किन्तु बध्यमान प्रकृति अबध्यमान में संक्रांत नहीं होती / यही प्रकृति-संक्रम की भजना है / [1636] __अचलभ्राता-आप पुण्य और पाप का लक्षण बताने की कृपा करे / पुण्य व पाप का लक्षण भगवान्-जो स्वयं शुभ वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श युक्त हो तथा जिसका विपाक भी शुभ हो वह पुण्य है और जो इससे विपरीत है, वह पाप है। पुण्य व पाप ये दोनों पुद्गल हैं, किन्तु वे मेरु आदि के समान अतिस्थूल नहीं हैं और परमाणु के समान अतिसूक्ष्म भी नहीं हैं / [1940] अचलभ्राता—संसार में पुद्गल तो खचाखच भरे पड़े हैं, उनमें से जीव पुण्य-पाप के रूप में कौन से पुद्गलों को ग्रहण करता है तथा कैसे ग्रहण करता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org