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________________ 144 गणधरवाद [ गणधर अचलभ्राता--मन-वचन-काय योग किसी समय शुभाशुभ अर्थात् मिश्र भी होता है, अतः आप का कथन युक्त नहीं है। अविधिपूर्वक दान देने का विचार करने वाले पुरुष का मनोयोग शुभाशुभ है, क्योंकि उसमें देने की भावना शुभयोग की तथा अविधिपूर्वकता अशुभ योग की सूचक है / इसी प्रकार प्रविधिपूर्वक दानादि देने का उपदेश करने वाले व्यक्ति का वचन योग शुभाशुभ होगा। जो मनुष्य जिन पूजा, वन्दन आदि प्रविधिपूर्वक करता है, उसकी वह कायचेष्टा शुभाशुभ काययोग है। भगवान् --प्रत्येक योग के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव / उसमें मन, वचन तथा काययोग के प्रवर्तक पुद्गल-द्रव्य द्रव्ययोग कहलाते हैं और मन, वचन, काय का स्फुरण (परिस्पंद) भी द्रव्ययोग है। इन दोनों प्रकार के द्रव्ययोग का कारण अध्यवसाय है और उसे भावयोग कहते हैं। द्रव्ययोग में शुभाशुभरूपता हो सकती है, किन्तु उसका कारण अध्यवसायरूप भावयोग एक समय में या तो शुभ होगा या अशुभ, उसका उभयरूप होना सम्भव नहीं है / द्रव्ययोग भो व्यवहार नय को अपेक्षा से ही उभयरूप है, निश्चय नय की अपेक्षा से वह भी एक समय में शुभ अथवा अशुभ होगा / तत्वचिन्ता के समय व्यवहार की अपेक्षा निश्चय नय की दृष्टि की प्रधानता माननी चाहिए। अध्यवसाय स्थानों के शुभ और अशुभ ये दो भेद ही हैं, किन्तु शुभाशुभ रूप तीसरा भेद नहीं है। जब शुभ अध्यवसाय होता है तब पुण्य कर्म का तथा जब अशुभ अध्यवसाय हो तब पाप कर्म का बन्ध होता है / शुभाशुभ उभयरूप किसी भो अध्यवसाय के अभाव के कारण शुभाशुभ उभयरूप कर्म भी सम्भव नहीं है / अतः पुण्य तथा पाप को स्वतन्त्र ही मानना चाहिए, संकीर्ण नहीं। [1936] अचलभ्राता-भावयोग को शुभाशुभ उभयरूप न मानने का क्या कारण है ? __ भगवान्-भावयोग ध्यान और लेश्यारूप होता है। ध्यान एक समय में धर्म या शुक्लरूप शुभ ही अथवा आर्त या रौद्र रूप अशुभ ही होता है, शुभाशुभ उभयरूप कोई ध्यान ही नहीं है। तथा ध्यान विरति होने पर लेश्या भी तैजसादि कोई एक शुभ अथवा कापोती आदि कोई एक अशुभ होती है, किन्तु उभयरूप लेश्या कोई नहीं है। इसलिए ध्यान और लेश्यारूप भावयोग भी एक समय में शुभ या अशुभ ही हो सकता है। फलतः भावयोग के निमित्त से बद्ध होने वाला कर्म भी पुण्यरूप शुभ अथवा पापरूप अशुभ ही होना चाहिए। अतः पाप तथा पुण्य को स्वतन्त्र ही मानना चाहिए। [1937] अचलभ्राता-यदि कोई भी कर्म शुभाशुभ उभयरूप नहीं होता, तो फिर मोहनीय कर्म की सम्यङ-मिथ्यात्व-रूप प्रकृति मिश्ररूप शुभाशुभ क्यों मानी जाती है ? ___भगवान्-उक्त मिश्र मोहनीय प्रकृति बन्ध की अपेक्षा से मिश्र नहीं है। अर्थात् योग द्वारा कर्म का जो ग्रहण होता है उसकी अपेक्षा से तो कर्म शुभ या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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