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________________ अचलनाता पुण्य-पाप-चर्चा 143 चक्रवर्ती की अपेक्षा हाथी का शरीर बड़ा है, तथापि पुण्य प्रकर्ष चक्रवर्ती में है, हाथी में नहीं। यदि पुण्य के अपकर्ष से शरीर की रचना अपकृष्ट होती हो तो हाथी में पुण्य का अपकर्ष होने के कारण उसका शरीर अत्यन्त लघु होना चाहिए, किन्तु वह तो बहुत ही विशाल है। फिर पुण्य तो शुभ होता है। अतः अत्यन्त अल्प पुण्य से भी उसका कार्य शुभ होना चाहिए, अशुभ कदापि नहीं। जैसे थोड़े सोने से छोटा सोने का घट बनता है किन्तु वह मिट्टो का नहीं बन जाता, वैसे ही पुण्य से जो कुछ भी निष्पन्न हो वह शुभ ही होना चाहिए, किसी भी दशा में अशुभ नहीं। अतः अशुभ का कारण पाप मानना चाहिए। [1933] अचलभ्राता-पाप के उत्कर्ष से दुःख होता है तथा पाप के अपकर्ष से सुख, इस पक्ष को स्वीकार करने में क्या बाधा है ? केवल पापवाद का निरास, पुण्यसिद्धि भगवान्-जो कुछ मैंने पुण्य-पक्ष के विषय में कहा है, उसे उलटा कर पापपक्ष के विषय में कहा जा सकता है। जैसे पुण्य के अपकर्ष से दुःख नहीं हो सकता, वैसे ही पाप के अपकर्ष से सुख नहीं हो सकता। यदि अधिक परिमाण युक्त विष अधिक हानि करता हो तो न्यूनपरिमाण युक्त विष कम हानि करेगा, किन्तु उससे लाभ कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि थोड़ा पाप थोड़ा दुःख देता है, किन्तु सुख के लिए तो पुण्य की कल्पना ही करनी पड़ेगी। अचलभ्राता-पुण्य पाप को साधारण (संकीर्ण-मिश्रित) मानने में क्या दोष है ? संकीर्ण पक्ष का निरास भगवान्- कोई भी कर्म पुण्य-पाप उभयरूप नहीं हो सकता। कारण यह है कि ऐसा कर्म निर्हेतुक है / [1934] अचलभ्राता-आप यह कैसे कहते हैं कि साधारण कर्म का कोई भी कारण नहीं। __ भगवान् --कर्म का कारण है योग। एक समय में योग शुभ होगा अथवा अशुभ, किन्तु वह शुभाशुभ उभयरूप नहीं होता। अतः उसका कार्य कर्म भी पुण्यरूप शुभ अथवा पापरूप अशुभ होगा, उभय रूप नहीं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच कर्म-बन्ध के हेतु कहलाते हैं। इनमें एक योग ही ऐसा कारण है जिसका कर्म-बन्ध के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। इसलिए जहाँ-जहाँ कर्म-बन्ध होता है वहाँ योग अवश्य होता है। इसीलिए यहाँ अन्य कारणों का उल्लेख न कर केवल योग का ही कथन किया है, मन, वचन, काय इन तीन साधनों के भेद के कारण योग के तीन भेद हैं। [1935] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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