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________________ 142 गणधरवाद [ गणधर की कोई आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए देहादि कार्य के मूत होने से उसके कारण कर्म को भी मूर्त मानना चाहिए। मेरे इस कथन में कुछ भी दोष नहीं है। [1626] केवल पुण्यवाद का निरास, पापसिद्धि __ इस प्रकार यह बात सिद्ध हो जाती है कि कर्म रूपो होकर भी सुख-दुःख का कारण बनता है / अतः उसे पुण्यरूप और पापरूप दोनों प्रकार का मानना चाहिए। इससे इस प्रथम पक्ष का निरास हो जाता है कि 'पुण्य का अपकर्ष होने से दुःख की वृद्धि होती है, पाप को पुण्य से स्वतन्त्र मानने की आवश्यकता नहीं है / ' [1630] अचलभ्राता आप यह बात कौन-सी युक्ति के आधार पर कहते हैं ? __ भगवान्-दुःख की बहुलता तदनुरूप कम के प्रकर्ष से माननी चाहिए, क्योंकि दुःख का अनुभव प्रकृष्ट है। जैसे सुख के प्रकृष्ट अनुभव के आधार पर पुण्य का प्रकर्ष उसका कारण माना जाता है, वैसे ही प्रकृष्ट दुःखानुभव का कारण भो किसी कर्म का प्रकर्ष मानना चाहिए। इसलिए यह कारण पुण्य का अपकर्ष नहीं, प्रत्युत पाप का प्रकर्ष स्वीकार करना चाहिए। [1631] म अपि च, जीव को जिस प्रकृष्ट दु:ख का अनुभव होता है, उस का कारण केवल पुण्य का अपकर्ष ही नहीं है। कारण यह है दुःख के प्रकर्ष में बाह्य अनिष्ट आहार आदि का प्रकर्ष भी अपेक्षित है। यदि पुण्य के अपकर्ष से हो प्रकृष्ट दुःख स्वीकार किया जाए तो पुण्य-सम्पाद्य इष्ट आहार आदि बाह्य साधनों के अपकर्ष से ही प्रकृष्ट दुःख होना चाहिए, किन्तु उसमें सुख के प्रतिकूल अनिष्ट आहारादि विपरीत बाह्य साधनों के बल के प्रकर्ष की अपेक्षा नहीं रहनी चाहिए। सारांश यह है कि यदि दुःख पुण्य के अपकर्ष से होता हो तो सुख के साधनों का अपकर्ष ही उसका कारण होना चाहिए, दुःख के साधनों के प्रकर्ष की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए। वस्तुतः दुःख का प्रकर्ष केवल सुख के साधनों के अपकर्ष से नहीं होता, उसके लिए दुःख के साधनों का प्रकर्ष भी आवश्यक है ही। इसलिए जिस प्रकार सुख के साधनों के प्रकर्ष-अपकर्ष के लिए पुण्य का प्रकर्ष-अपकर्ष अनिवार्य है, उसी प्रकार दुःख के साधनों के प्रकर्ष-अपकर्ष के लिए पाप का प्रकर्ष-अपकर्ष भो अनिवार्य है / पुण्य के अपकर्ष से इष्ट साधनों का अपकर्ष हो सकता है, किन्तु उससे अनिष्ट साधनों की वृद्धि कैसे सम्भव है ? अतः उसका अन्य स्वतन्त्र कारण पाप को मानना हा चाहिए। [1932] पुनश्च, यदि पुण्य के उत्कर्ष के अाधार पर ही सुखी शरीर की तथा अपकर्ष के आधार पर ही दु:ी शरीर को रचना होती हो और पाप जैसा कोई स्वतन्त्र पदार्थ न हो तो शरीर के मूर्त होने के कारण पुण्य के उत्कर्ष से ही उसे बड़ा होना चाहिए तथा पुण्य का अपकर्ष होने पर ही छोटा एवं बड़ा शरीर ही सुखदायक होना चाहिए. छोटा शरीर दुःखद होना चाहिए। मगर वस्तुत: ऐसा नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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