________________ 140 गणधरवाद [ गणधर होना चाहिए ? आप न कहें, तो भी यह बात समझ में आने वाली है। यदि संसार में कोई वस्तु ऐकान्तिक अतुल्य हो, तभी उसको व्यावृत्ति के लिए कार्यानुरूप कारण का विधान आवश्यक सिद्ध हो। किन्तु यह पक्ष तो किसी का है हो नहीं, फिर विशेषतः कार्यानुरूप कारण सिद्ध करने का कुछ भी प्रयोजन नहीं है / भगवान-सौम्य ! कार्यानुरूप कारण को सिद्ध करने का प्रयोजन यह है कि यद्यपि संसार में सभी कुछ तुल्यातुल्य है, तथापि कारण का ही एक विशेषस्वपर्याय कार्य है, इसलिए उसे इस दृष्टि से अनुरूप कहा गया है। कार्य के अतिरिक्त समस्त पदार्थ उसके अकार्य हैं—परपर्याय हैं, इसलिए इस दष्टि से उन सब को कारण से असमान (भिन्न) कहा गया है। तात्पर्य यह है कि कारण कार्य-वस्तुरूप में परिणत होता है किन्तु उससे भिन्न अन्य वस्तुरूप में परिणत नहीं होता। इसी बात के समर्थन के लिए ही यहाँ विशेषतः कार्यानुरूप कारण का कथन किया गया है अर्यात् अन्य समस्त वस्तुओं के साथ कारण की इतर प्रकार से समानता होने पर भी पर-पर्याय की दृष्टि से कार्य-भिन्न सभी पदार्थ कारण के अननुरूप हैं। इस बात का प्रतिपादन करना ही यहाँ इष्ट है। अचलभ्राता- प्रस्तुत में सुख और दुःख अपने कारण के स्वपर्याय किस प्रकार हैं ? भगवान् -जीव तथा पुण्य का संयोग ही सुख का कारण है। उस संयोग का ही स्वपर्याय सुख है / जीव व पाप का संयोग दुःख का कारण है / उस संयोग का ही स्वपर्याय दुःख है। जैसे सुख को शुभ, कल्याण, शिव आदि कह सकते हैं वैसे ही उसके कारण पुण्य के लिए भी यही शब्द प्रयुक्त किए जा सकते हैं। जैसे दुःख को अकल्याण, अशुभ, अशिव आदि संज्ञा दी जाती है, उसके कारण पाप-द्रव्य को भी इन शब्दों से प्रतिपादित किया जाता है। इसीलिए हो विशेषरूपेण सुख-दुःख के अनुरूप कारण के रूप में पुण्य पाप माने जाते हैं। [1924] अचलभ्राता-क्या आपके कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे नीलादि पदार्थ मूर्त होने पर भी अमूर्त-रूप तत्प्रतिभासी ज्ञान को उत्पन्न करते हैं वैसे मूर्त कर्म भी अमूर्त सुखादि को उत्पन्न करते हैं ? भगवान् हाँ। अचलभ्राता-तो क्या आप यह भी मानते हैं कि जैसे अन्नादि दृष्ट पदार्थ सुख के मूर्त कारण हैं वैसे कर्म भी मूर्त कारण है ? भगवान्–हाँ / [1925] अचलभ्राता तो फिर मूर्त होते हुए भी कर्म दिखाई क्यों नहीं देता? इसलिए दृष्ट-रूप मूर्त अन्नादि को ही अमूर्त सुख का कारण मानना चाहिए। अतएव अदृष्ट मूर्त कर्म को स्वीकार करना निष्प्रयोजन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org