________________ अचलभ्राता] पुण्य-पाप-चर्चा 139 ___ "दृष्ट हेतुनों के होने पर भी कार्य विशेष असम्भव हो तो कुम्भकार के यत्न के समान एक अन्य अदृष्ट हेतु का अनुमान करना पड़ता है और वह कर्ता का शुभ अथवा अशुभ कर्म है।" मेरे कहने से भी अग्निभूति के समान तुम्हें शुभाशुभ कर्म स्वीकार करना ही चाहिए, क्योंकि सर्वज्ञ का वचन प्रमाणभूत होता है / [1620] कर्म के पुण्य-पाप भेदों को सिद्धि एक अन्य प्रकार से भी कर्म के पुण्य और पाप इन दो भेदों की सिद्धि हो सकती है / सुख और दुःख दोनों ही कार्य हैं, अतः दोनों के ही उनके अनुरूप कारण होने चाहिएँ। जैसे घट का अनुरूप कारण मिट्टी के परमाणु हैं तथा पट के अनुरूप कारण तन्तु हैं, वैसे ही सुख का अनुरूप कारण पुण्य कर्म तथा दुःख का अनुरूप कारण पाप कर्म है / इस प्रकार दोनों का पार्थक्य है / [1921] ___ अचलभ्राता–कार्य के अनुरूप कारण का नियम स्वीकार करने पर सुखदुःख का कारण कर्म भो उनके अनुरूप होना चाहिए। सुख-दुःख अात्मा के परिणाम होने से अरूपो हैं। इसलिए यदि कर्म को अरूपी न मान कर रूपी मानेंगे तो कार्यानुरूप कारण का नियम बाधित हो जाएगा। अतः मानना पड़ेगा कि कारण कार्यानुरूप नहीं होता। [1922] कर्म अमूर्त नहीं भगवान् --जब मैं यह कहता हूँ कि कारण कार्यानुरूप होना चाहिए तब इसका अर्थ यह नहीं है कि कारण सर्वथा अनुरूप होता है। कारण कार्य के सर्वथा अनुरूप भो नहीं होता तथा उससे सर्वथा अननुरूप अर्थात् भिन्न भी नहीं होता। कार्य-कारण को सर्वथा अनुरूप मानने के दोनों से सभी धर्म एक-समान ही मानने पड़ेंगे, ऐसी स्थिति में दोनों में कोई भेद हो नहीं रहेगा। दोनों कारण ही बन जाएंगे, अथवा कार्य हो / यदि इन दोनों में सर्वया भेद माना जाए तो कारण या कार्य में से एक को वस्तु तथा दूसरे को अवस्तु मानना पड़ेगा। दोनों वस्तुरूप नहीं हो सकगे, क्योंकि इस प्रकार दोनों का ऐकान्तिक भेद बाधित हो जाएगा। अतः कार्यकारण की सर्वथा अनुरूपता अथवा अननुरूपता न मान कर कुछ अंशों में समानता और कुश अंशों में असमानता माननी चाहिए / इससे सुख-दुःख का कारण कर्म, सुख-दुःख की अमूर्तता के कारण अमूर्त सिद्ध नहीं हो सकेगा। [1923] अचलभ्राता-आपके कहने का भावार्थ यह है कि संसार में सभी कुछ तुल्य और अतुल्य है। फिर इस कथन का क्या प्रयोजन है कि कारण कार्यानुरू 1. इह दृष्टहेत्वसं भविकायंविशेषात् कुलाल यत्न इव / हेत्वन्तरमनुमेयं तत् कर्म शुभाशुभं कर्तु: / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org