________________ अचलाता ] पुण्य-पाप-चर्चा 137 अथवा कर्म का ही दूसरा नाम स्वभाव है, इसे मानने में क्या आपत्ति है ? / अपि च, स्वभाव से विविध प्रकार के प्रतिनियत आकार वाले शरीरादि कार्यों को उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि स्वभाव एक-रूप ही होता है; जैसे कुम्भकार प्रतिनियत आकार वाले घड़े की उत्पत्ति विविध उपकरणों के बिना नहीं कर सकता, वैसे ही विविध कर्मों के अभाव में नाना प्रकार के सुख-दुःख की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। स्वभाव के एकरूप होने के कारण उसे ऐसी उत्पत्ति का कारण नहीं माना जा सकता। [1615] पुनश्च, यदि स्वभाव' वस्तु है तो वह मूर्त है या अमूर्त ? यदि वह मूर्त है तो केवल नाम का ही भेद है / मैं उसे पुण्य-पाप-रूप कर्म कहता हूँ तथा स्वभाववादी उसे स्वभाव कहता है। यदि स्वभाव-रूप वस्तु अमूर्त है तो वह आकाश के समान कुछ भी काम नहीं कर सकती / फिर देहादि अथवा सुख-दुःख-रूप कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी ? अथवा देहादि कार्य मूर्त है, अतः उसका कारण स्वभाव भी मूर्त होना चाहिए। यदि उसे मूर्त माना जाए तो स्वभाव और कर्म में, जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, नाममात्र का भेद रह जाता है / अचलभ्राता-स्वभाव का अर्थ निष्कारणता मानने में क्या दोष है ? भगवान्- इसका अर्थ यह होगा कि कार्योत्पत्ति का कोई भी कारण नहीं है / ऐसी स्थिति में घटादि के समान खर-शृंग की भी उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती ? किन्तु यह उत्पत्ति नहीं होती। कारण यह है कि खर-शृंग का कोई भी कारण नहीं है। अतः निष्कारण उत्पत्ति मान्य नहीं हो सकती। इसलिए स्वभाव को निष्कारणता कहना अयुक्त है। [1916-17] अचल भ्राता—फिर स्वभाव को वस्तु-धर्म मानना चाहिए। अनुमान से पुण्य-पाप कर्म को सिद्धि भगवान् -स्वभाव को यदि वस्तु-धर्म माना जाए तो वह प्रस्तुत में जीव और कर्म का पुण्य एवं पाप-रूप परिणाम ही सिद्ध होगा। अचलभ्राता-यह कैसे ? 1. गाथा 1788 के पूर्वार्ध में भी यही कथन है। 2. यहाँ उठाए गए प्रश्न पहले भी स्वभाव का वर्णन करते हुए पा चुके हैं, किन्तु उनका निराकरण कुछ अलग ढंग से किया था / (गाथा 1789-90) यहाँ के समान प्रश्न गाथा ___1643 की व्याख्या में टीकाकार ने उठाए हैं तथा उनका उत्तर भी दिया है। 3. इस पक्ष का अन्य प्रकारेण निराकरण गाथा 1643 की व्याख्या में तथा 1791 में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org