________________ 136 गणधरवाद [ गणधर का अपकर्ष होने पर उसे पाप कहते हैं और पापांश का अपकर्ष होने पर उसे पुण्य कहते हैं। [1611] पुण्य-पाप दोनों स्वतन्त्र हैं 4. इसके विपरीत कुछ लोग यह मानते हैं कि पुण्य व पाप दोनों स्वतन्त्र हैं / उनकी युक्ति यह है कि सुख व दुःख दोनों कार्य हैं, किन्तु इन दोनों का अनुभव एक साथ नहीं होता; अतः इनके कारण भिन्न-भिन्न होने चाहिएँ / सुख का कारण पुण्य है और दुःख का कारण पाप है। स्वभाववाद __5. पुण्य-पाप सम्बन्धी उपर्युक्त चारों मान्यताओं को परस्पर विरुद्ध देख कर कुछ लोग मानते हैं कि पुण्य-पाप जैसे कोई पदार्थ इस संसार में नहीं हैं, समस्त भव-प्रपंच स्वभाव से ही होता है / संशय-निवारण इन पाँचों मतों को देख कर तुम्हारा मन दुविधा में है कि पाप-पुण्य को माना जाए या न माना जाए ? मानना हो तो दोनों को स्वतन्त्र मानना अथवा केवल पाप या केवल पुण्य को मानना। किन्तु अचलभ्राता ! इनमें चौथा पक्ष ही युक्ति-युक्त है - अर्थात् पाप व पुण्य दोनों स्वतन्त्र हैं। अन्य सभी पक्ष युक्ति-बाधक हैं / __ अचलभ्राता-आप स्वभाववाद को क्यों अयुक्त मानते हैं, पहले यह बताएँ स्वाववाद का निराकरण * भगवान् संसार में सुख-दुःख की जो विचित्रता है वह स्वभाव से घटित नहीं हो सकती। स्वभाव के विषय में मेरे तीन प्रश्न हैं--क्या स्वभाव वस्तु है ? क्या स्वभाव निष्कारणता है ? क्या स्वभाव वस्तु धर्म है ? इनमें स्वभाव को वस्तु तो नहीं मान सकते, क्योंकि आकाश-कुसुम के समान वह अत्यन्त अनुपलब्ध है। [1912-13] अचलभ्राता-अत्यन्त- अनुपलब्ध होने पर भी उसके अस्तित्व में क्या बाधक है ? भगवान् —ऐसी स्थिति में अत्यन्त अनुपलब्ध होने पर भी पुण्य-पाप रूप कर्म को ही क्यों न स्वीकार किया जाए ? अत्यन्त अनुपलब्ध होने पर भी जिन कारणों के आधार पर स्वभाव को माना जाए, उन्हीं के आधार पर कर्म की सत्ता भी मान लेनी चाहिए। [1914] - 1. यह गाथा पहले भी पाई है----1786 1 स्वभाववाद का निराकरण गाथा 1643 की व्याख्या में देखें। 2. यह गाथा भी पहले आई है-1787 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org