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________________ अचल भ्राता] पुण्य-पाप-चर्चा :35 पुण्यवाद 1. केवल पुण्य ही है, पाप का सर्वथा अभाव है। पुण्य का क्रमशः उत्कर्ष होता है, वह शुभ है। अर्थात् जैसे-जैसे पुण्य थोड़ा-थोड़ा बढ़ता है वैसे-वैसे क्रमशः सुख की भी वृद्धि होती है / अन्त में पुण्य का परम उत्कर्ष होने पर स्वर्ग का उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है। किन्तु यदि पुण्य की क्रमशः हानि होती जाए तो सुख की भी क्रमिक हानि होती है / अर्थात् उसी परिमाण में दुःख बढ़ता जाता है और निदान जब पुण्य न्यूनतम रह जाता है तब नरक में उत्कृष्ट दुःख मिलता है। किन्तु पुण्य का सर्वथा क्षय होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार केवल पुण्य को स्वीकार करने से सुख-दुःख दोनों घटित हो जाते हैं तो फिर पाप को पृथक् मानने की क्या आवश्यकता है ? जैसे पथ्याहार की क्रमिक वृद्धि से आरोग्य-वृद्धि होती है, वैसे ही पुण्य-वृद्धि से सुख-वृद्धि होती है; जैसे पथ्याहार के कम होने पर आरोग्य की हानि होती है, अर्थात् रोग बढ़ता है, वैसे ही पुण्य की हानि से दुःख बढ़ता है। सर्वथा पथ्याहार का त्याग करने पर मरण होता है और सर्वथा पुण्य का क्षय होने पर मोक्ष होता है। इस तरह केवल पुण्य से सुख-दुःख की उपपत्ति हो जाती है, अतः पाप को पृथक् क्यों माना जाए ? [1608-6] पापवाद 2. इसके विपरीत केवल पाप का अस्तित्व मानने वाले तथा पुण्य का . निषेध करने वाले लोगों का कथन है कि जैसे अपथ्याहार की वृद्धि से रोग की वृद्धि होती है, वैसे ही पाप की वृद्धि से अधमता अथवा दुःख की वृद्धि होती है। जब पाप का परम प्रकर्ष होता है तब नारकों में उत्कृष्ट दुःख मिलता है। पुनश्च, जैसे अपथ्याहार को कम करने से आरोग्य-लाभ की वृद्धि होती है, वैसे ही पाप का अपकर्ष होने पर शुभ अथवा सुख की वृद्धि होती है और न्यूनतम पाप होने पर देवों का उत्कृष्ट सुख मिलता है। अपथ्याहार के सर्वथा त्याग से परम आरोग्य की प्राप्ति होती है तथा पाप के सर्वथा नाश से मोक्ष का लाभ होता है। इस प्रकार केवल पाप को मानने से सुख-दुःख की उपपत्ति हो जाती है, अतः पुण्य को पृथक् मानने की कोई आवश्यकता नहीं है / [1910] पुण्य-पाप दोनों संकीर्ण हैं 3. पुण्य या पाप ये दोनों ही स्वतन्त्र नहीं हैं किन्तु उभय साधारण एक ही वस्तु हैं। ऐसा मानने वालों का कथन है कि जैसे अनेक रंगों के सम्मिश्रण से एक साधारण संकीर्ण वर्ण की उत्पत्ति होती है, अथवा विविध वर्णयुक्त मेचक मरिंग एक ही है, अथवा सिंह और नर का रूप धारण करने वाला नरसिंह एक ही है, वैसे ही पाप और पुण्य की संज्ञा प्राप्त करने वाली एक ही साधारण वस्तु है। इस साधारण वस्तु में जब पुण्य की एक मात्रा बढ़ जाती है तब उसे पुण्य कहते हैं / तथा जब पाप की एक मात्रा बढ़ जाती है तब उसे पाप कहते हैं। अर्थात् पुण्यांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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