________________ नवम गणधर अचलाता पुण्य-पाप-चर्चा उन सब को दीक्षित हुए सुन कर अचलभ्राता ने भी विचार किया कि मैं भगवान् के पास जाऊँ, उन्हें नमस्कार करू तथा उनकी सेवा करू / तत्पश्चात् वह भगवान् के पास आ पहुँचा / [1605] जन्म-जरा-मरण से मुक्त भगवान् ने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होने के कारण उसे 'अचलभ्राता हारित !' इस नाम-गोत्र से बुलाया। [1606] पुण्य-पाप के विषय में सन्देह और भगवान् ने उसे कहा-'पुरुष एवेदं ग्नि सर्वम्' इत्यादि वाक्यानुसार तुम्हें यह प्रतीत होता है कि इस संसार में पुरुष के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है, अतः पुण्य-पाप जैसी वस्तु को भी मानने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु तुम देखते हो कि अधिकतर लोग पुण्य-पाप का सद्भाव मानते हैं / अतः तुम्हें सन्देह है कि पुण्य-पाप का सद्भाव है या नहीं ? किन्तु तुम उक्त वेद-वाक्य का यथार्थ अर्थ नहीं जानते इसीलिए ऐसा संशय करते हो। मैं तुम्हें इसका यथार्थ अर्थ बताऊँगा, उस से तुम्हारा संशय दूर हो जाएगा / [1607] अपि च, पुण्य-पाप के सम्बन्ध में तुम्हारे सन्मुख भिन्न-भिन्न मत उपस्थित हैं। इसलिए भी तुम यह निर्णय नहीं कर सकते कि सच्चा पक्ष कौनसा होगा ? तुम्हारा मन अस्थिर रहता है। तुम्हारे समक्ष पुण्य-पाप के सम्बन्ध में निम्नलिखित मत उपस्थित हैं 1. केवल पुण्य ही है, पाप नहीं। 2. केवल पाप ही है, पुण्य नहीं। 3. पुण्य और पाप एक ही साधारण वस्तु है। जैसे मेचक मणि में विविध रंग होने पर भी वह एक ही साधारण वस्तु है. वैसे ही सुख तथा दुःख रूप फल देने वाली कोई एक ही वस्तु है / 4. सुख रूप फल देने वाला पुष्य तथा पाप रूप फल देने वाला पाप ये दोनों स्वतन्त्र हैं। 5. कर्म जैसी अर्थात् पुण्य-पार जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, यह समस्त भवप्रपंच स्वभाव से ही होता है / इन पाँचों मतों को मानने वाले अपने-अपने मत के समर्थन के लिए निम्न युक्तियाँ देते हैं:-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org