________________ प्रकम्पित] नारक-चर्चा 133 म. भगवान् -मेरा वचन सत्यरूप तथा अहिंसक ही है, क्योंकि असत्य और हिंसक वचन के कारण रूप, राग, द्वेष, भय, मोह का मुझ में अभाव है। अतः ज्ञाता तथा मध्यस्थ पुरुष के वचन के सदृश तुम्हें मेरा वचन सत्य और अहिंसक ही मानना चाहिए / [1602] / अकम्पित-किन्तु आप सर्वज्ञ हैं, इसका क्या प्रमाण है ? भगवान्-तुम प्रत्यक्ष देखते हो कि मैं सभी संशयों का निवारण करता हूँ। क्या सर्वज्ञ के बिना ऐसा निराकरण कोई कर सकता है ? अतः तुम्हें मुझे सर्वज्ञ मानना चाहिए / पुनश्च, भय, राग, द्वेष के कारण मनुष्य अज्ञानी बनता है / मुझ में इनमें से कोई भी दोष नहीं है / तुम उन का कोई भी बाह्य चिह्न मेरे में नहीं देख रहे हो / अतः भयादि दोष से रहित होने के कारण मुझे सर्वज्ञ मान कर तुम्हें मेरा वचन प्रमाण मानना चाहिए। अकम्पित-युक्ति तथा आपके वचनों से नारकों का सद्भाव मानने के लिए मैं तैयार हूँ, किन्तु पहले कहे गए वेद-वाक्य के विषय में आपका क्या विचार है ? 'न ह वै प्रेत्य नारकाः' इस वाक्य में नारकों का स्पष्ट रूप से प्रभाव बताया है। वेद-वाक्यों का समन्वय __ भगवान्– इस वाक्य का तात्पर्य नारकों का अभाव नहीं है। इसका भाव यह है कि परलोक में मेरु आदि के समान नारक शाश्वत नहीं हैं, किन्तु जो यहाँ प्रकृष्ट पाप करते हैं, वे मर कर नारक बनते हैं। अतः ऐसा पाप नहीं करना चाहिए; जिससे नारक बनना पड़े। [1603] - इस प्रकार जब जरा-मरण से रहित भगवान् ने अकम्पित के संशय का निवारण किया तब उसने अपने 350 शिष्यों के साथ दीक्षा अँगीकार की। [1604] 1. यह गाथा पहले भी आई है 1573. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org