________________ 132 गणधरवाद [ गणधर कारण प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाते हैं। ऐसे प्रत्यक्ष से नारकों की सिद्धि होती है, अतः उनका सद्भाव मानना चाहिए। वे अनुमान से भी सिद्ध होते हैं / [1868] अकम्पित- कौन से अनुमान से नारकों की सिद्धि होती है ? अनुमान से नारक-सिद्धि भगवान्– प्रकृष्ट पाप फल का भोक्ता कोई न कोई होना ही चाहिए, क्योंकि वह भी जघन्य-मध्यम कर्मफल के समान कर्मफल है। जघन्य-मध्यम कर्मफल के भोक्ता तिर्यंच तथा मनुष्य हैं। इसी प्रकार प्रकृष्ट पाप फल के जो भोक्ता हैं, उन्हें नारक मानना चाहिए / अकम्पित-जो तिर्यंच, मनुष्य अत्यन्त दुःखी हों, उन्हें ही प्रकृष्ट पाप फल के भोक्ता मानने में क्या आपत्ति हो सकती है ? भगवान-देवों में जैसा सुख का प्रकर्ष दृग्गोचर होता है, वैसा दुःख का प्रकर्ष तिर्यंच-मनुष्यों में दिखाई नहीं देता, अतः उन्हें नारक नहीं कह सकते। ऐसा एक भी तिर्यंच या मनुष्य नहीं जो केवल दुःखी ही हो। अतः प्रकृष्ट पाप-कर्म-फल के भोक्ता रूप में तियंच-मनुष्यों से भिन्न नारक मानने चाहिएँ। कहा भी है"नारकों में तीव्र परिणाम वाला सतत दुःख लगा ही रहता है। तिर्यंचों में उष्ण ताप, भय, भूख, तृषा इन सबका दुःख होता है तथा अल्प सुख भी होता है।" ___मनुष्य को नाना प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक सुख और दुःख होते हैं, किन्तु देवों को तो शारीरिक सुख ही होता है, अल्प मात्रा में ही मानसिक दुःख होता है।" [1896-1600] सर्वज्ञ के वचन से सिद्धि अपि च, हे अकम्पित ! मेरे दूसरे वचनों के समान नारक का अस्तित्व बताने वाला वचन भी सत्य ही है, क्योंकि मैं सर्वज्ञ हूँ। प्रतः तुम्हें स्वेष्ट जैमिनी आदि अन्य सर्वज्ञ के वचन के समान मेरा वचन भो प्रमाण मानना चाहिए। [1901] अकम्पित- सर्वज्ञ होते हुए भी आप झूठ क्यों नहीं बोलते ? 1. सततमनुबद्धमुक्त दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम् / तिर्यसूष्णभयक्षुत्तृडादिदुःखं सुखं चाल्पम् // सुखदुःखे मनुजानां मनःशरीराश्रये बहुविकल्पे / सुखमेव तु देवानामल्पं दुःखं तु मनसिभवम् / / यह उद्धरण प्राचारांग टीका में भी है पृ० 25. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org