________________ अकम्पित ] नारक-चर्चा 131 अनोन्द्रिय ज्ञान का विषय समस्त है भगवान् -- इन्द्रियाँ जिस प्रामा को सहायक नहीं हैं अर्थात् जो केवलज्ञानी प्रात्त है वह अत्यधिक तो क्या, परन्तु सब कुछ जान सकता है। जैसे घर में बैठ कर देवदत्त झरोखों द्वारा जितने पदार्थ देखता है, उनसे कुछ अधिक खुले आकाश में रह कर जान सकता है, वैसे ही जीव के जब ज्ञान-दर्शन के समस्त प्रावरण दूर हो जाते हैं तब वह इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान की अपेक्षा बहुत अधिक जान सकता है, देख सकता है। यही नहीं, अपितु कोई ऐसी वस्तु शेष नहीं रहती जो उसे ज्ञात न हो / [1895] अकम्पित—संसार में सभी लोग इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं, आप उसे परोक्ष क्यों मानते हैं ? इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष क्यों ? भगवान्-वस्तु में अनन्त धर्म हैं, किन्तु इन्द्रिय द्वारा किसी एक रूपादि धर्म का हो ज्ञान होता है तथा उस ज्ञान से रूपादि किसी एक धर्म से विशिष्ट वस्तु का ज्ञान होता है / अतः वह अनुमान ज्ञान के समान परोक्ष ही है। जैसे अनुमान ज्ञान द्वारा किसी एक कृतकत्वादि धर्म से किसी एक अनित्यत्वादि धर्म-विशिष्ट घट की सिद्धि होती है, वैसे ही इन्द्रिय ज्ञान से भी इन्द्रिय द्वारा किसी एक धर्म के ग्रहण से उस धर्म से विशिष्ट वस्तु की सिद्धि होती है / [1866] पुनश्च, जैसे पूर्वोपलब्ध सम्बन्ध के स्मरण के सहयोग से धूमज्ञान द्वारा होने वाला अग्नि का ज्ञान परोक्ष है, वैसे ही इन्द्रिय ज्ञान भो परोक्ष है। कारण यह है कि उसमें भी पूर्वगृहीत संकेत-स्मरण पावश्यक है। अभ्यास आदि के कारण यह संकेत-स्मरण प्रायः शीघ्र होता है, इसलिए हमारे ध्यान में नहीं आता। फिर भी वह अनिवार्य है, अन्यथा जिस मनुष्य ने संकेत ग्रहण न किया हो, उसे भी घड़ा देख कर यह ज्ञान हो जाना चाहिए कि यह घड़ा है। ऐसा नहीं होता, अतः संकेत-स्मरण आवश्यक है। इस प्रकार अनुमान तथा इन्द्रिय ज्ञान दोनों में स्मरण समान रूप से सहायक है, इसलिए ये दोनों परोक्ष हैं / __ अपि च, जिस ज्ञान में आत्मा को निमित्त को अपेक्षा हो, वह परोक्ष हो कहलाता है। जैसे वह्निज्ञान में धूमज्ञान के निमित्त रूप होने से वह ज्ञान अनुमानात्मक परोक्ष है, वैसे ही इन्द्रिय ज्ञान में भी अक्ष अर्थात् आत्मा को इन्द्रिय की अपेक्षा होने से इन्द्रिय निमित है, इसलिए इन्द्रिय ज्ञान भो पराक्ष है। जो प्रत्यक्ष होता है वह केवलज्ञान के समान किसी भी निमित को अपेक्षा नहीं रखता, वह साक्षात् ज्ञेय को जानता है। [1817] इस लिए केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा अवधिज्ञान के अतिरिक्त शेष सभी ज्ञान अनुमान के समान परोक्ष ही हैं। ये तीन ज्ञान केवल आत्मसापेक्ष होने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org