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________________ 130 गणधरवाद [गाधर औपचारिक प्रत्यक्ष कहते हैं, किन्तु वस्तुतः इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष ही है। कारण यह है कि जैसे अनुमान में अग्नि का ज्ञान साक्षात् नहीं होता प्रत्युत् धूम द्वारा होता है, वैसे ही प्रस्तुत में अक्ष अर्थात् प्रात्मा को वस्तु का साक्षात् ज्ञान नहीं होता किन्तु आत्मा से पृथक् ऐसी इन्द्रियों द्वारा वाह्य वस्तु का ज्ञान होता है; इसलिए अनुमान के समान वस्तुतः वह परोक्ष ही है। इन्द्रियातीत ज्ञान ही वास्तविक प्रत्यक्ष है। ऐसे ज्ञान द्वारा मुझे नारक प्रत्यक्ष हैं, अतः तुम्हें उन्हें प्रत्यक्ष मानना चाहिए / [1862] उपलब्धि-कर्ता इन्द्रियाँ नहीं, प्रात्मा है ___ अकम्पित-अक्ष अर्थात् आत्मा इन्द्रियों द्वारा पदार्थ को उपलब्ध करती है, इसलिए आप इन्द्रिय ज्ञान को परोक्ष कहते हैं; किन्तु मैं तो यह कहता हूँ कि आत्मा को उपलब्धि-कर्ता क्यों माना जाए? अक्ष अर्थात् इन्द्रियाँ ही उपलब्धि-कर्ता हैं, अतः यह क्यों न माना जाए कि इन्द्रिय ज्ञान ही प्रत्यक्ष है ? भगवान्इन्द्रियों को उपलब्धि-कर्ता नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन्द्रियाँ घटादि पदार्थ के समान अमूर्त अोर अचेतन हैं। जब वे उपलब्धि-कर्ता ही सिद्ध नहीं होतीं, तो तज्जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कैसे कह सकते हैं ? इन्द्रियाँ तो उपलब्धि के द्वार हैं तथा जीव उपलब्धि का कर्ता है। जैसे झरोखा स्वयं कुछ नहीं देख सकता किन्तु उसके द्वारा देवदत्त देखता है, वैसे ही इन्द्रियाँ भी द्वार या करण हैं तथा उनके द्वारा कर्ता जीव उपलब्धि करता है। अतः इन्द्रियाँ उपलब्धि-कर्ता नहीं हैं और तज्जन्य ज्ञान भो वास्तविक प्रत्यक्ष नहीं है। [1893] अकम्पित-इन्द्रियों से भिन्न प्रात्मा क्यों मानी जाए ? इन्द्रियाँ हो पात्मा हैं, इस बात को क्यों न स्वोकार किया जाए ? प्रात्ना इन्द्रियों से भिन्न है ___ भगवान् -इन्द्रिय-व्यापार समाप्त हो जाने के बाद भी इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थों का स्मरण होता है तथा इन्द्रिय-व्यापार को उपस्थिति में भी अन्यमनस्कता होने पर उपलब्धि नहीं होती, अतः आत्मा को इन्द्रियों से भिन्न हो मानना चाहिए और इन्द्रियों को उपलब्धि का केवल साधन ही मानना चाहिए। जैसे घर के पाँच झरोखों द्वारा देखने वाला देवदत्त पाँच झरोखों से भिन्न है, वैसे ही पाँच इन्द्रियों द्वारा ज्ञान करने वाला ज्ञाता उनसे भिन्न ही है / [1864] अकम्पित –यदि प्रात्मा इन्द्रियों की सहायता न ले तो वह बहुत ही कम ज्ञान प्राप्त कर सकती है, अतः अतीन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा इन्द्रिय ज्ञान ही अधिक . जान सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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