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________________ प्रकम्पित ] नारक-चर्चा 129 संशय निवारण-नारक सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष हैं ___ तुम्हारी यह मान्यता प्रसिद्ध है कि प्रत्यक्ष न होने के कारण नारकों का अभाव है। कारण यह है कि मैं जीवादि पदार्थों के समान नारकों को भी केवलज्ञान द्वारा साक्षात् देखता हूँ; अतः तुम्हें जीवादि पदार्थों के समान नारकों की सत्ता भी स्वीकार करनी चाहिए। अकम्पित--किन्तु मैं तो नारकों को देखता नहीं, अतः मैं उनकी सत्ता कैसे मानू ? किसी को भी प्रत्यक्ष हो, वह प्रत्यक्ष हो है भगवान्–तो क्या स्वप्रत्यक्ष ही केवल एक प्रत्यक्ष है ? यह नहीं हो सकता। संसार में अन्य प्राप्त पुरुष के प्रत्यक्ष को भी स्वप्रत्यक्ष के तुल्य महत्व दिया जाता है। सिंह, शरभ', हँस का प्रत्यक्ष दर्शन सब को नहीं होता, फिर भी कोई उन्हें अप्रत्यक्ष नहीं कहता। ये सभी पदार्थ प्रत्यक्ष माने जाते हैं, अपि च, तुम स्वयं भी सभी देश, काल, ग्राम, नगर, नदी, समुद्र को साक्षात् नहीं देखते, तथापि वे सब किसी अन्य को प्रत्यक्ष हैं, अतः तुम भी उन्हें प्रत्यक्ष मानते हो। इसी प्रकार नारक मुझे प्रत्यक्ष हैं, तुम उन्हें अप्रत्यक्ष कैसे कहते हो ? नारकों को प्रत्यक्ष हो कहना चाहिए। [1860-61] अकम्पित-किन्तु चर्म-चक्षुत्रों से तो इस लोक में किसो को भी नारक प्रत्यक्ष नहीं होते, फिर उन्हें प्रत्यक्ष कैसे कहा जाए ? इन्द्रिय-ज्ञान परोक्ष है भगवान् -तुम्हारी भूल का अब पता चल गया है। क्या इन्द्रिय प्रत्यक्ष ही केवल प्रत्यक्ष है ? क्या इन्द्रियातीत प्रत्यक्ष सम्भव ही नहीं है ? वस्तुतः जो प्रत्यक्ष नहीं है, उसे तुम प्रत्यक्ष समझ रहे हो; ओर जो प्रत्यक्ष है, उसे तुम प्रत्यक्ष नहीं मानते, यह तुम्हारा महान् भ्रम है। इसी भ्रन के कारण तुम नारकों को प्रत्यक्ष मानने के लिए तैयार नहीं हो / किन्तु हे अकम्पित ! इन्द्रिय प्रत्यक्ष केवल उपचार से प्रत्यक्ष कहलाता है। अतीन्द्रिय ज्ञान ही मुख्य प्रत्यक्ष है, क्योंकि वह मात्र आत्मा की अपेक्षा से ही उत्पन्न होता है / इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है, तदपि उसे उपचार से इसलिए प्रत्यक्ष कहते हैं कि जैसे बाह्य लिंग-रूप धूम द्वारा बाह्य अग्नि का ज्ञान अनुमानजन्य होने से परोक्ष है वैसे इन्द्रियजन्य ज्ञान के विषय में नहीं कहा जा सकता, क्योंकि धूम जैसी बाह्य वस्तु के ज्ञान की उसमें अपेक्षा नहीं रहतो; इसीलिए उसे 1. एक प्रकार का प्राणी जिसके पाठ पर माने जाते हैं। वह बरफ वाले प्रदेश में रहता है, ऐसी लोक-मान्यता है / इस शब्द के ये अर्थ भी प्रसिद्ध हैं ऊँट, हाथी का बच्चा, तितली, टिड्डी आदि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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