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________________ आठवें गणधर अकम्पित नारक-चर्चा इन सबको दीक्षित हुए जान कर अकम्पित ने भी विचार किया कि मैं भी भगवान् के पास जाऊँ, वन्दना करू तथा उनकी सेवा करू। यह निश्चय कर वह भगवान् के समीप आ पहुँचा। [1885] नारक विषयक सन्देह जाति-जरा-मरण से मुक्त भगवान् सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी थे। उन्होंने उसे 'अकम्पित गौतम!' कह कर सम्बोधित किया [1886] और कहने लगे-तुम्हारे मन में यह संशय है कि नारक हैं या नहीं ? इसका कारण यह है कि "नारको वै एष जायते यः शद्रान्नमश्नाति"1 इत्यादि वेद-वाक्य सुन कर तुम्हें नारकों की सत्ता का ज्ञान होता है, किन्तु 'न ह वै प्रेत्य नारकाः' इत्यादि वाक्यों से नारकों का अभाव सूचित होता है। अतः वेद के ऐसे परस्पर विरोधी अर्थ वाले वाक्य सुन कर तुम्हें संशय होता है कि नारक होंगे या नहीं ? किन्तु तुम इन वेद-वाक्यों का ठीक-ठीक अर्थ नहीं जानते इसीलिए सन्देह करते हो। मैं तुम्हें इनका यथार्थ अर्थ बताऊँगा जिससे तुम्हारा संशय दूर हो जाएगा। [1887] तुम युक्ति से भी नारकों के अभाव का समर्थन करते हो और कहते हो कि ये चन्द्र, सूर्य तथा अन्य देव तो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं और जो देव प्रत्यक्ष नहीं हैं उनकी सिद्धि अनुमान से हो सकती है; जैसे कि विद्यामन्त्र की साधना द्वारा फलसिद्धि होने के कारण अदृष्ट देवों का अस्तित्व मानना चाहिए। किन्तु 'नारक' यह तो केवल शब्द ही सुनाई देता है। इस शब्द का अर्थ न तो प्रत्यक्ष है और न ही किसी अनुमान से इसकी सिद्धि होती है / इस प्रकार प्रमाण से अनुपलब्ध नारकों का मनुष्य, तिर्यंच, देव से भिन्न जातीय जीव रूप में अस्तित्व क्यों माना जाए ? [1888-86] अकम्पित—आपने मेरे संशय का कथन ठीक-ठीक कर दिया है। अब आप सर्व प्रथम यह बताएँ कि नारकों के अभाव की सिद्धि का समर्थन करने वाली मेरी युक्ति क्यों प्रयुक्त है ? 1. जो ब्राह्मण शूद्र का अन्न खाता है, वह नारक बनता है। 2. जीव मर कर नारक नहीं होता / अथवा यह अर्थ भी हो सकता है कि परलोक में नारक नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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