________________ 126 गणधरवाद [ गणधर मौर्यपुत्र-देव पद का अर्थ मनुष्य मान लें, जैसे कि गुण-सम्पन्न गणधरादि तथा ऋद्धि-सम्पन्न चक्रवर्ती आदि। ये सब ससार में देव कहलाते हैं, फिर अदृष्ट देव की कल्पना क्यों की जाए ? भगवान-गणधर, चक्रवर्ती आदि को तो उपचार से देव कहा जाता है। जैसे यदि कोई मुख्य सिंह न हो तो मनुष्य को भी उपचार से सिंह नहीं कह सकते, वैसे ही यदि देव न हों तो चक्रवर्ती आदि को उपचार से भी देव नहीं कहा जा सकता। अतः देव शब्द का अर्थ मनुष्य से भिन्न रूप देव मानना चाहिए। [1880-81] मौर्यपुत्र-युक्ति से देवों की सिद्धि होने पर भी वेद में परस्पर विरोधी कथन क्यों हैं ? वेद-वाक्यों का समन्वय भगवान् -वेद वाक्यों का यथार्थ अर्थ जान कर तुम्हें विरोध के स्थान में संगति ज्ञात होगी। वेदों को यदि देवों का अस्तित्व मान्य न हो तो वेद में अनेक स्थलों पर प्रतिपादित अग्निहोत्रादि का स्वर्ग रूप फल प्रयुक्त सिद्ध होगा। यदि देवों का ही अस्तित्व न हो तो स्वर्ग किसे मिलेगा ? अतः मानना पड़ेगा कि वेदों को देवों का अस्तित्व मान्य है। ___ अपि च, यह लोक-मान्यता है कि दानादि का फल भी स्वर्ग में मिलता है। देवों के अभाव में यह मान्यता भी निराधार हो जाती है। तुम यह बात तो पहले ही मान चुके हो कि 'स एष यज्ञायुधी' इत्यादि वेद-वाक्य स्पष्टतः देवों की सत्ता के द्योतक हैं। मौर्यपुत्र-यह सब तो ठीक है, किन्तु 'को जानाति मायोपमान गीर्वाणान् इन्द्रयमवरुणकुबेरादीन्' इत्यादि वाक्य में देवों को मायोपम क्यों कहा है ? भगवान्-- इस वाक्य का तात्पर्य देवों का अभाव बताना नहीं है। इसका भाव तो यह है कि स्वयं देव भी अनित्य हैं / ऐसी अवस्था में अन्य सिद्धि तो अत्यन्त निःसार तथा अनित्य हो, इसमें आश्चर्य नहीं। इसी अर्थ को सन्मुख रखकर ही इन्द्रादि देवों को मायोपम या मायिक कहा है। ऐसा न हो तो देवों के अस्तित्व द्योतक वाक्य तथा श्रुति मन्त्र के पदों से देवों का आवाहन आदि असंगत हो जाते हैं। [1882] 1. जैसे कि 'अग्निहोत्र जुहुयात् स्वर्गकामः'—स्वर्ग-इच्छुक अग्निहोत्र करे ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org