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________________ मौर्यपुत्र ] देव-चर्चा 125 प्रति आकर्षण, पूर्व भव के वैरी को पीड़ा देना, मित्र का उपकार करना तथा कामक्रीड़ा / कभी-कभी किसी साधु की परीक्षा के निमित्त भी वे इस लोक में आते हैं। [1876-77] __ मौर्यपुत्र देवों की सिद्धि के लिए क्या और भी कोई प्रमाण है ? देव-साधक अन्य अनुमान भगवान् हाँ, अनुमान प्रमाण हैं। वे ये हैं-देवों के अस्तित्व में श्रद्धा रखनी चाहिए, क्योंकि (1) जातिस्मरणज्ञानी आप्त पुरुष अपने पूर्वभव का ज्ञान प्राप्त कर ये बताते हैं कि वे देव थे, (2) कुछ तपस्वियों को देव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, (3) कुछ व्यक्ति विद्या, मन्त्र, उपयाचन द्वारा देवों से अपने कार्य की सिद्धि करवाते हैं, (4) कुछ मनुष्यों में ग्रह-विकार अर्थात् भूत-पिशाच-कृत विक्रिया दिखाई देती है (5) तप, दानादि क्रिया द्वारा उपाजित प्रकृष्ट पुण्य का फल होना ही चाहिए और (6) देव यह एक अभिधान है। अतः इन सब हेतुनों से देवों की सिद्धि होती है। फिर सभी शास्त्रों में देवों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इस कारण भी उनके विषय में शंका नहीं करनी चाहिए। मौर्यपुत्र -आपने कहा है कि ग्रह-विकार के कारण देवों का अस्तित्व मानना चाहिए, किन्तु यह कैसे ज्ञात होगा कि मनुष्य शरीर की अमुक क्रिया ग्रहविकार है ? ग्रह-विकार की सिद्धि भगवान् --जैसे यन्त्र-पुरुष में चलने की शक्ति नहीं है, किन्तु यदि उसमें कोई पुरुष प्रविष्ट हो तो यन्त्र में गति आ जाती है, वैसे ही शरीर में अमुक कार्य करने की शक्ति का अभाव होने पर भी शरीर वह काम करता दिखाई दे तो उसमें शरीराधिष्ठाता जीव से भिन्न किसी अदृश्य जीव का अधिष्ठान मानना पड़ेगा / ऐसा अधिष्ठाता देव है। उसी के कारण मनुष्य अपने शरीर से अपनी शक्ति का अतिक्रमण कर काम करता है। [1878-79] ___ मौर्यपुत्र-देवत्व की सिद्धि के लिए आपने एक हेतु यह दिया है कि देव एक अभिधान है / कृपया इसका स्पष्टीकरण करें। देव पद की सार्थकता भगवान्-देव एक सार्थक पद है उसका कोई अर्थ होना चाहिए, क्योंकि वह व्युत्पत्ति वाला शुद्ध पद है; जैसे कि घट / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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