________________ 124 गणधरवाद [ गणधर प्रकार इस लोक में प्रकृष्ट पुण्य करने वालों के फल-भोग के लिए अन्यत्र देवों का अस्तित्व भी स्वीकार करना चाहिए। मौर्यपुत्र- इसी संसार में ही अपने प्रकृष्ट पाप का फल भोगने वाले अत्यन्त दुःखी मनुष्य तथा तिर्यंच हैं तथा अपने प्रकृष्ट पुण्य का फल भोगने वाले अति सुखी मनुष्य भी हैं। अगर हम यह बात मान लें तो अहष्ट नारक तथा देवों को पृथक मानने की आवश्यकता नहीं रहती। भगवान् -- इस संसार में दुःखी मनुष्यों व तिर्यंचों तथा सुखी मनुष्यों के होने पर भी नारक तथा देव-योनि को पृथक् मानने का कारण यह है कि प्रकृष्ट पाप का फल केवल दुःख ही होना चाहिए तथा प्रकृष्ट पुण्य का फल केवल सुख ही, इस दृष्ट संसार में ऐसा कोई प्राणी नहीं है जो मात्र दुःखी हो और जिसे सुख का कुछ भी अंश प्राप्त न हो। ऐसा भी कोई प्राणी नहीं है जो मात्र सुखी हो और जिसे लेश मात्र भी दुःख प्राप्त न हा। मनुष्य कितना भो सुखो क्यों न हो, फिर भी रोग, जरा, इष्ट-वियोग आदि से थोड़ा दुःख होता ही है। अतः कोई ऐसी योनि भी होनी चाहिए जहाँ प्रकृष्ट पाप का फल केवल दुःख ही हो तथा प्रकृष्ट पुण्य का फल केवल सुख ही हो। ऐसी योनियाँ क्रमशः नारक व देव हैं। अतः उनका पृथक् अस्तित्व मानना चाहिए। [1874] __ मौर्यपुत्र–किन्तु आप के कथनानुसार यदि देव हैं तो वे स्वैरविहारी ह ते हुए भी मनुष्य लोक में क्यों नहीं पाते ? देव इस लोक में क्यों नहीं पाते ? भगवान्–वे यहाँ आते ही नहीं हैं, ऐसी बात नहीं है। कारण यह है कि तुम उन्हें समवसरण में बैठे देख रहे हो। हाँ, सामान्यतः वे नहीं आते, यह बात सत्य है, किन्तु इसका कारण देवों का अभाव नहीं है। वास्तविक कारण यह है कि वे स्वर्ग में दिव्य पदार्थों में आसक्त हो जाते हैं, वहाँ के विषय-भोग में लिप्त हो जाते हैं। वहीं का काम समाप्त नहीं होता। उनके यहाँ आगमन का विशेष प्रयोजन भी नहीं है और इस लोक की दुर्गन्ध के कारण भी वे यहाँ नहीं आते। [1872] वे यहाँ कैसे पाएँ ? ये सभी उनके न आने के कारण हैं तथापि वे किसी समय इस लोक में आते भी हैं / तीर्थंकर के जन्म, दीक्षा, केवल, निर्वाण इन सब महोत्सवों के प्रसंग पर वे इस लोक में आते हैं। उन में कुछ इन्द्रादि स्वयं भक्ति-पूर्वक आते हैं, कुछ उनका अनुसरण करते हुए आते हैं, कुछ अपने संशय के निवारणार्थ आते हैं। इनके अतिरिक्त भी उनके यहाँ आगमन के कारण हैं जैसे कि पूर्व-भव के पुत्र-मित्रादि का राग, मित्रादि को प्रतिबोध देने के लिए पूर्व संकेत का अस्तित्व, तपस्या गुण के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org