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________________ मौर्यपुत्र ] देव-चर्चा 123 वसन्तपुर के प्रालयों में देवदत्तादि रहते हैं, इसीलिए उन्हें प्रालय कहा जाता है; वैसे ही सूर्य-चन्द्र भी यदि प्रालय हों तो उनमें निवास करने वाले भी होने चाहिएं। जो वहाँ रहते हैं, वही देव कहलाते हैं / मौर्यपुत्र-प्रालय होने से उनमें देवदत्त जसे मनुष्य रहते होंगे। आप यह कैसे कहते हैं कि वे देव हैं ? भगवान्-तुम स्वयं प्रत्यक्ष देखते हो कि इस देवदत्त के प्रालय की अपेक्षा वे प्रालय विशिष्ट हैं / अतः उनमें निवास करने वाले भी देवदत्त की अपेक्षा विशिष्ट होने चाहिएँ / अतः उन्हें देव मानना चाहिए। मौर्यपुत्र -अाप ने यह नियम बनाया है कि वे आलय हैं, अतः उनमें रहने वाला कोई न कोई होना चाहिए, किन्तु यह नियम अयुक्त है। कारण यह है कि शून्य घर अालय कहलाते हैं, किन्तु उनमें रहने वाला कोई नहीं होता। भगवान् --कहने का भाव यह है कि जो प्रालय होता है वह सर्वदा शून्य नहीं हो सकता / उसमें कभी न कभी कोई रहता ही है। अतः चन्द्रादि में निवास करने वाले देवों की सिद्धि होती है। [1871] मौर्यपुत्र - अाप जिन्हें प्रालय कहते हैं वे वस्तुतः प्रालय हैं या नहीं, अभी इसी बात का निर्णय नहीं हुआ। ऐसी अवस्था में यह कहना ही निर्मूल है कि वे निवास-स्थान हैं, अतः उनमें रहने वाले होने चाहिएँ / सम्भव है कि जिसे आप सूर्य कहते हैं वह एक अग्नि का गोला ही हो और जिसे चन्द्र कहते हैं वह स्वभावतः स्वच्छ जल ही हो। यह भी सम्भव है कि वे ज्योतिष्क विमान प्रकाशमान रत्नों के गोले ही हों। भगवान्-वे देवों के रहने के ही विमान हैं, क्योंकि वे विद्याधरों के विमानों के समान रत्न-निर्मित हैं तथा अाकाश में भी गमन करते हैं। बादल तथा वायु भी आकाश में गमन करते हैं, फिर भी उन्हें विमान नहीं कहा जा सकता; कारण यह है कि वे रत्न-निर्मित नहीं हैं। [1872] मौर्यपुत्र-सूर्य-चन्द्र-विमानों को मायावी की माया क्यों न माना जाए ? भगवान-वस्तुतः ये मायिक नहीं है। इन्हें मायिक मानें, तो भी इस माया को करने वाले देव तो मानने ही पड़ेंगे। मायावी के बिना माया कैसे सम्भव है ? मनुष्य ऐसी विक्रिया नहीं कर सकते, अतः विवश होकर देव ही मानने पड़ते हैं / अपि च, सूर्य-चन्द्र-विमानों को मायिक कहना भी अयुक्त है। कारण यह है कि माया तो क्षण पश्चात् नष्ट हो जाती है, किन्तु उक्त विमान सदा सब द्वारा उपलब्ध होने के कारण शाश्वत हैं; जैसे चम्पा अथवा पाटलिपुत्र सत्य है, वैसे ये भी सत्य हैं। [1873] पुनश्च, इस लोक में जो प्रकृष्ट पाप करते हैं, उनके लिए उस पाप के फल-भोग के निमित्त परलोक में नारकों का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है / इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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