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________________ 122 गणधरवाद [ गणधर देवों के अभाव का समर्थन तुम निम्न प्रकार से युक्ति द्वारा भी करते होतुम समझते हो कि नारक तो परतन्त्र हैं तथा अत्यन्त दुःखी भी हैं, अतः वे हमारे सन्मख उपस्थित होने में असमर्थ हैं। वे चाहे दिखाई न दें, तो भी दूसरों के वचन को प्रमाण मान कर उनका अस्तित्व श्रद्धा का विषय बन जाता है। [1867] किन्तु देव तो स्वच्छन्द-विहारी हैं—अर्थात् उन्हें यहाँ आने से कोई भी रोक नहीं सकता। वे दिव्य प्रभाव वाले भी हैं। फिर भी वे कभी दिखाई नहीं देते / श्रुति-स्मृति में यद्यपि उनका अस्तित्व बताया है तथापि उनके सम्बन्ध में सन्देह होना अयुक्त नहीं है / [1868] संशय का निवारण-देव-प्रत्यक्ष हैं किन्तु हे मौर्यपुत्र ! तुम्हें देवों की सत्ता के विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए / श्रुति-स्मृति के आधार पर ही नहीं, अपितु प्रत्यक्ष प्रमाण से भी तुम उनकी सत्ता मान लो। यहाँ पर मेरे इस समवसरण में ही मनुष्य से भिन्न-जातीय भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक इन चारों प्रकार के देव उपस्थित हैं। तुम उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर अपने संशय का निवारण कर लो।" [1866] मौर्यपुत्र-किन्तु यहाँ देखने से पूर्व मुझे जो संशय था, वह तो युक्तियुक्त था न ? भगवान-नहीं, क्योंकि मेरे समवसरण में आने से पहले तुम यदि दुसरे देवों को नहीं तो कम से कम सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क देवों को तो प्रत्यक्ष देखते ही थे। अतः यह नहीं माना जा सकता कि देव कभी देखे नहीं गए, इसलिए उनके विषय में अस्तित्व विषयक सन्देह युक्त है। तुम्हें इस समय से पूर्व ही देवों के एक देश का प्रत्यक्ष था ही, इसलिए समस्त देवों सम्बन्धी शंका अयुक्त थी। अनुमान से सिद्धि पुनश्च, लोक में देवकृत अनुग्रह और पीड़ा दोनों ही हैं। इस कारण भी देवों का अस्तित्व मानना चाहिए; जैसे लोक का हित या अहित करने वाले राजा का अस्तित्व माना जाता है, वैसे ही देवों का अस्तित्व भी मानना चाहिए, क्योंकि वे भी किसी को वैभव प्रदान करते हैं तथा किसी के वैभव का नाश करते हैं। [1870] मौर्यपुत्र-चन्द्र-विमान, सूर्य-विमान आदि निवास-स्थान शून्य नगर के सदृश दिखाई देते हैं। उनमें निवास करने वाला कोई भी नहीं है / अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि सूर्य-चन्द्र का प्रत्यक्ष होने से देवों का भी प्रत्यक्ष हो गया ? भगवान्यदि तुम सूर्य व चन्द्र को प्रालय (स्थान) मानते हो तो उसमें रहने वाला कोई होना ही चाहिए, अन्यथा उसे प्रालय नहीं कहा जा सकता / जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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