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________________ सातवें गणधर मौर्यषुत्र देव-चर्चा _ मण्डिक के दीक्षित होने का समाचार ज्ञात कर मौर्यपुत्र ने भी विचार किया कि मैं भी भगवान के पास जाऊँ, वन्दना करू तथा उनकी सेवा करू। यह विचार कर वह भगवान् के पास आगया। [1864] देवों के विषय में सन्देह __ जाति-जरा-मरण से मुक्त भगवान् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी थे अतः उन्होंने उसे नाम गोत्र से बुलाते हुए कहा 'मौर्यपुत्र काश्यप !' [1865] तत्पश्चात् उन्होंने कहना प्रारम्भ किया, "तुम्हारे मन में यह सन्देह है कि देव हैं अथवा नहीं। तुमने वेद के परस्पर विरोधी अर्थ वाले वाक्य सुने हैं, जैसे कि 'स एष यज्ञायुधो यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति' इत्यादि तथा 'अपामसोमममृता अभूम, अगन्म ज्यातिर विदाम देवान्, किं नूनमस्मान्, कृरणवदराति: किमु धूतिरमृतमर्त्यस्य' आदि। इन वाक्यों से तुम्हें यह प्रतीत होता है कि स्वर्ग में बसने वाले देवों का अस्तित्व है। किन्तु तुमने इसके विरोधी अर्थ के प्रतिपादक वेद-वाक्य भी सुने हैं, जैसे कि 'को जानाति मायोपमान गीर्वाणानिन्द्रयमवरुणकुबेरादीन' आदि / अतः तुम समझते हो कि देव तो हैं ही नहीं। वस्तुतः तुम इन वाक्यों का तात्पर्य नहीं जानते, इसीलिए तुम्हें संशय है / मैं तुम्हें वास्तविक अर्थ बताऊँगा। उससे तुम्हारे संशय का निवारण हो जाएगा। [1866] 1. यज्ञरूप शस्त्र वाला यजमान निश्चितरूपेण स्वर्ग में जाता है। 2. मुद्रित गणधरवाद में शुद्ध पाठ नहीं है। ऊपर.दिए गए शुद्ध पाठानुसार अर्थ यह है "हे अमृत-सोम ! हमने तुम्हें पीया और हम अमर हो गए। हमने प्रकाश प्राप्त किया, देवों का ज्ञान प्राप्त किया। अब शत्रु हमारा क्या कर सकते हैं ? मरणशील मानव की धूर्तता क्या कर सकती है ?" सायण-कृत अर्थ की अपेक्षा ग्रिफिथ द्वारा किया गया अर्थ अधिक संगत प्रतीत होने से यहाँ वही दिया गया है / देखें 8.48. Hymns of The Rigveda Vol. !I. 3. माया सदृश इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि देवों को कौन जानता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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