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________________ मण्डिक ! बन्ध-मोक्ष-ची नहीं होता तब मुक्त का भी स्थान होने पर पतन क्यों माना जाए ? 'स्थान है, अतः पतन होता है' यह कथन स्ववचन के ही विरुद्ध है / वस्तुतः यह कहना चाहिए कि "अस्थान है अतः पतन है / ' सारांश यह है कि स्थान के कारण सिद्धों का पतन नहीं माना जा सकता। [1858] मण्डिक * संसार अथवा भव से ही सिद्ध होते हैं / अतः सभी मुक्तों में एक ऐसा मुक्त होना चाहिए जो सर्व सिद्धों की आदि में हो। आदि सिद्ध कोई नहीं ___ भगवान् - तुम यह नियम प्रतिपादित करना चाहते हो कि जिनमें सादित्व (कार्यत्व) हो उनमें किसी न किसी को प्रथम होना चाहिए, किन्तु ऐसा नियम व्यभिचारी है। कारण यह है कि दिन और रात के आदि युक्त होने पर भी अनादि काल के कारण किसी एक दिन या रात को सर्वप्रथम नहीं कह सकते। इसी प्रकार मुक्त जीवों के सादि होने पर भी काल के अनादित्व के कारण किसी मुक्त को सर्वप्रथम नहीं कह सकते / [1856] मण्डिक-अनादि काल से नवीन-नवीन सिद्ध होते रहे हैं, किन्तु सिद्ध-क्षेत्र तो परिमित है; अतः उसमें अनन्त सिद्धों का समावेश कसे सम्भव है ? / सिद्धों का समावेश भगवान् - मुक्त जीव अमूर्त हैं, अतः परिमित क्षेत्र में भी अनन्त का समावेश हो जाता है। जैसे प्रत्येक द्रव्य अनन्त सिद्धों के अनन्त ज्ञान व दर्शन का विषय बनता है अर्थात् एक ही द्रव्य में अनन्त ज्ञान व दर्शन रह सकते हैं तथा एक ही नर्तकी में हजारों प्रेक्षकों की दृष्टि समा सकती है वैसे ही परिमित क्षेत्र में अनन्त सिद्धों का समावेश हो सकता है। पुनश्च, छोटे से कमरे में अनेक दीपकों का मूर्त प्रकाश समा जाता है। ऐसी स्थिति में अमूर्त अनन्त सिद्धों का परिमित क्षेत्र में समावेश क्यों नहीं हो सकता ? [1860] वद-वाक्यों का समन्वय इस तरह युक्ति से बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था सिद्ध हो जाती है, अत: उसे मानना हो चाहिए। वेद में भी बन्ध व मोक्ष का प्रतिपादन किया ही है / 'नहि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः / ' इत्यादि वेद-वाक्यों का तूम यथार्थ अर्थ नहीं जानते इसीलिए बन्ध-मोक्ष में सन्देह करते हो, किन्तु तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उक्त वाक्य के पूर्वार्द्ध में सशरीर तथा उत्तरार्द्ध में अशरीर जीव के विषय में कहा गया है। अतः स्पष्टतः पूर्वार्द्ध से बन्ध तथा उत्तरार्द्ध से मोक्ष का प्रतिपादन सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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