________________ मणधरवाद [ गणधर पुनश्च, लोक प्रमेय है, अतः उसका कोई परिमाण-कर्ता द्रव्य होना चाहिए। वैसे ज्ञेय का अस्तित्व होने से उसके परिच्छेदक ज्ञान का अस्तित्व माना जाता है, वैसे ही लोक के परिमाण-कर्ता द्रव्य (धर्मास्तिकाय) की सत्ता स्वीकार करनी चाहिए। अथवा जीव और पुद्गल हो लोक कहलाते हैं। वे प्रमेय हैं, अतः उनका परिमाणकर्ता द्रव्य मानना चाहिए। जैसे प्रमेय-रूप शाल्यादि धान्य का परिमारण-कर्ता द्रव्य प्रस्थ है, वैसे ही जीव पुद्गलात्मक लोक का परिमाण-कर्ता द्रव्य धर्मास्तिकाय है। प्राकाश सर्वत्र समान है, अतः अलोक मानने से ही धर्मास्तिकाय की सार्थकता सिद्ध होती है। इसलिए धर्मास्तिकाय से परिच्छिन्न-रूप लोक से भिन्न अलोक मानना चाहिए और यह स्वीकार करना चाहिए कि सिद्ध लोक के अग्रभाग में हो अवस्थित रहते हैं। [1855] ___ मण्डिक -सिद्धों का स्थान सिद्ध-स्थान कहलाता है, अतः वह सिद्धों का अधिकरण है। जो अधिकरण होता है उससे पतन अवश्य होता है, जैसे वक्ष से फल का अथवा पर्वतादि स्थान से देवदत्त का। अतः सिद्ध-स्थान से सिद्धों का भी पतन होना चाहिए। सिद्ध स्थान से पतन नहीं भगवान् –'सिद्धों का स्थान' इसमें जो छठी विभक्ति है वह कर्ता के अर्थ की द्योतक समझनी चाहिए। इसका अर्थ होगा--सिद्धकर्तृक स्थान, अर्थात् सिद्ध रहते हैं। इससे सिद्ध तथा उनके स्थान में भेद नहीं अपितु अभेद विवक्षित है। सारांश यह है कि सिद्धों का स्थान सिद्धों से पृथक् नहीं है, अतः वहाँ से पतन मानने की आवश्यकता नहीं है / [1856] अथवा सिद्धों से स्थान का भेद माना जाए तो भी वह स्थान आकाश ही है। आकाश नित्य होने से विनाश-रहित है, अतः पतन का अवकाश नहीं है। पुनः मुक्तात्मा में कर्म भी नहीं होते / कर्म के बिना पतन कैसे सम्भव है ? सिद्ध में गतिक्रिया का पहले समर्थन किया जा चुका है, किन्तु वह गति-क्रिया केवल एक समय के लिए होती है और पूर्व-प्रयोग से हातो है, अादि बात भी बताई जा चुकी हैं, अतः वह गति-क्रिया पुनः नहीं होती; इसलिए भी पतन का अवकाश नहीं है। पतन के कई कारण होते हैं-अपना प्रयत्न, आकर्षण, विकर्षण, गुरुत्व आदि। मुक्तात्मा में इनकी सम्भावना ही नहीं है। कारण यह है कि तदुत्पादक कारणों का अभाव है। फिर सिद्धों का पतन कैसे हो ? [1857] / अपि च, यह नियम ही व्यभिचारी है कि 'स्थान है अतः पतन होना चाहिए।' इस कारण से भी मुक्त का पतन नहीं माना जा सकता। आकाश का स्थान नित्य है, फिर भी आकाश का पतन नहीं होता; जब स्थान होने पर भी आकाश का पतन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org