________________ मण्डिक बन्ध-मोक्ष-चर्चा 117 अभाव अभिप्रेत नहीं होता अथवा इससे किसी अचेतन घटादि वस्तु का भी बोध नहीं होता। किन्तु हमें इस कथन से विशिष्ट ज्ञान-रहित किसी चेतन पुरुष-विशेष का ही ज्ञान होता है। इसी प्रकार यहाँ भी वस्तु-बूत आकाश-विशेष का ही बोध अलोक शब्द से होना चाहिए। कहा भी है - 'जिस कार्य को 'ना' युक्त अथवा 'इव' युक्त कहा जाता है उससे समान किन्तु अन्य ऐसे अधिकरण (पदार्थ) का लोक के प्रसंग में बोध कराता है।" "ना तथा इव युक्त पद का अर्थ अन्य किन्तु सदृशरूप अधिकरण (वस्तु) समझा जाता है / "2 सारांश यह है कि लोक का विपक्ष अलोक भी मानना चाहिए / धर्माधर्मास्तिकायों को सिद्धि इस प्रकार लोक तथा अलोक दोनों वस्तुभूत हैं। अतः लोक से अलोक को भिन्न सिद्ध करने वाले किसी तत्व की भी सिद्ध होती है तथा वे धर्म और अधर्मास्तिकाय हैं / अर्थात् जितने आकाश-क्षेत्र में धर्म और अधर्म हैं, वह लोक है। इस रीति से यदि ये दोनों अस्तिकाय लोक का परिच्छेद न करते हों तो प्राकाश के सर्वत्र समानरूपेण व्याप्त होने के कारण यह भेद कैसे होगा कि 'यह लोक है' और 'वह अलोक है' / [1851-52] यदि उक्त प्रकारेण इन दोनों अस्तिकायों द्वारा अलोकाकाश से लोकाकाश का विभाग न हो तो जीव और पुद्गल गति में किसी प्रकार का प्रतिघात न होने से अप्रतिहतगति वाले हो जाएँ। अलोक अनन्त है, अतः उनकी गति का कहीं अन्त ही न होगा। यदि उनकी गति का अन्त ही न होगा तो जीव और पुद्गल का सम्बन्ध ही न हो सकेगा। सम्बन्धाभाव में पुद्गल स्कन्धों की औदारिक आदि विचित्र रचना भी असम्भव होगी। फलतः बन्ध, मोक्ष, सुख-दुःख आदि सांसारिक ब्यवहार का अभाव हो जाएगा। इसलिए लोकालोक का विभाग मानना चाहिए तथा उस विभाग को करने वाले धर्माधर्मास्तिकाय मानने चाहिए। [1853] जैसे पानी के बिना मछली की गति नहीं होती, वैसे ही लोक से परे अलोक में गति-सहायक द्रव्य के न होने से जीव तथा पुद्गल की गति अलोक में नहीं होती। अतः लोक में गति-सहायक-रूप धर्मास्तिकाय द्रव्य मानना चाहिए जो कि लोक परिमाण है / [1854] 1. 'नयुक्तमिवयुक्त वा यद्धि कार्य विधीयते / तुल्याधिकरणेऽन्यस्मिंल्लोकेऽप्यर्थगतिस्तथा / / 2. ना -इवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथा ह्यर्थगतिः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org