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________________ मण्डिक ] बन्ध-मोक्ष-चर्चा 115 भगवान् --प्रयत्न को चाहे क्रिया न मानें, किन्तु जो पदार्थ आकाश के समान निष्क्रिय होता है उसमें प्रयत्न की सम्भावना नहीं है, अतः आत्मा को सक्रिय मानना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रयत्न भी वस्तुतः क्रिया ही है। यदि यह कल्पना की जाए कि प्रयत्न क्रिया नहीं है तो प्रश्न होता है कि अमूर्तरूप प्रयत्न देह के परिस्पन्द में कैसे कारण बनता है ? ___ मण्डिक - प्रयत्न को किसी अन्य हेतु की अपेक्षा नहीं है, वह स्वतः ही देह के परिस्पन्द का हेतु बनता है / भगवान् -तो फिर यही मानलो कि स्वतः आत्मा से ही देह-परिस्पन्द होता है / व्यर्थ प्रयत्न को मानने को क्या आवश्यकता है ? __ मण्डिक–देह-परिस्पन्द का कारण किसी अदृष्ट को ही मान लेना चाहिए / आत्मा निष्क्रिय होने से कारण नहीं बन सकती। भगवान्-वह अदृष्ट कारण मूर्त है या अमूर्त ? यदि अमूर्त है तो आत्मा स्वयमेव देह-परिस्पन्द का कारण क्यों नहीं बनती ? आत्मा भी अमूर्त है। यदि अदृष्ट-रूप कारण मूर्त है तो वह कार्मण देह ही हो सकता है, अन्य नहीं। उस कार्मरण शरीर में भी यदि परिस्पन्द हो तो ही वह बाह्य शरीर के परिस्पन्द का कारण बन सकता है, अन्यथा नहीं। अतः प्रश्न होता है कि उस कार्मण शरीर के परिस्पन्द का क्या कारण है ? यदि उसका कोई कारण है तो उसके परिस्पन्द का भी कोई अन्य कारण होना चाहिए। इस प्रकार अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। यदि कार्मण देह में स्वभावतः ही परिस्पन्द माना जाए तो बाह्य शरीर में भी स्वभावतः परिस्पन्द मानना चाहिए / अदृष्ट मूर्त कार्मण शरीर को परिस्पन्द का कारण मानने की क्या जरूरत है ? मण्डिक-हाँ, यह ठीक है। बाह्य शरीर में स्वभावतः ही परिस्पन्द होता है, अतः आत्मा को सक्रिय मानने की आवश्यकता नहीं है / भगवान्—किन्तु शरीर में जिस प्रकार का प्रतिनियत विशिष्ट परिस्पन्द दिखाई देता है, उसे स्वाभाविक नहीं माना जा सकता। कारण यह है कि शरीर जड़ है / 'जो वस्तु स्वाभाविक होती है अर्थात् किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं . रखती-वह वस्तु सदैव होती है अथवा कभी नहीं होती।।' इस न्याय से यदि शरीर में परिस्पन्द स्वाभाविक हो तो उसे हमेशा एक जैसा ही रहना चाहिए, किन्तु वस्तुतः शरीर की चेष्टाएँ नाना प्रकार की होने पर भी अमुक अपेक्षा से नियत ही दिखाई देती हैं, अतः उन्हें स्वाभाविक नहीं मान सकते / फलतः कर्म-सहित अात्मा 1. नित्यं सत्वमसत्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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