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________________ मण्डिक] बन्ध-मोक्ष-चर्चा 113 प्रात्मा व्यापक नहीं है भगवान् -आत्मा को सर्वव्यापी नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें अनुमान बाधक है। बाधक अनुमान यह है-आत्मा असर्वगत है, क्योंकि वह कर्ता है; कुम्भकार के समान / आत्मा में कर्तृत्व धर्म सिद्ध है। यदि अात्मा को कर्त्ता न माना जाए तो वह भोक्ता अथवा द्रष्टा भी नहीं हो सकता; अतः उसे कर्ता मानना ही चाहिए। [1842] मण्डिक क्या आप आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं ? प्रात्मा नित्य-अनित्य है भगवान्-नहीं। जो लोग आत्मा को बौद्धों के समान एकान्त अनित्य कहते हैं, उनके निराकरण के लिए आत्मा का नित्यत्व सिद्ध किया है। वस्तुतः आत्मा के नित्यत्व के सम्बन्ध में मुझे एकान्त आग्रह नहीं है। मेरी मान्यतानुसार तो सभी पदार्थ उत्पाद, स्थिति, भंग इन तीनों धर्मों से युक्त होने के कारण नित्यानित्य हैं। जब केवल पर्याय की विवक्षा हो तो पदार्थ अनित्य कहलाता है। द्रव्य की अपेक्षा से उसे नित्य कहते हैं। जैसे कि घट के विषय में कहा जाता है कि मिट्टी का पिण्ड नष्ट होता है तथा मिट्टो का घड़ा उत्पन्न होता है, किन्तु मिट्टी तो विद्यमान ही रहती है। इसी प्रकार मुक्त जीव के विषय में कह सकते हैं कि वह संसारी आत्मा के रूप में नष्ट हुना, मुक्त प्रात्मा के रूप में उत्पन्न हुग्रा तया जोवत्व (सोपयोगत्वादि) धर्मों को अपेक्षा से जीव-रूप में स्थिर रहा / उस मुक्त जीव के विषय में भी हम कह सकते हैं कि वह प्रथम समय के सिद्ध रूप में नष्ट हुआ, द्वितीय समय के सिद्ध रूप में उत्पन्न हुआ, किन्तु द्रव्यत्व, जीवत्वादि धर्मों की अपेक्षा से अवस्थित ही है। अतः पर्याय की अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है और द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है / [1843] मण्डिक-यदि आत्मा सर्वगत नहीं तो मुक्तात्मा कहाँ रहती है ? भगवान्–सौम्य ! मुक्तात्मा लोक के अग्रभाग में रहती है। मण्डिक-मुक्त जीव में विहायोगति नान कर्म का अभाव है। ऐसी स्थिति में वह लोक के अग्रभाग में कैसे गमन करता है ? मुक्त लोक के अग्रभाग में रहते हैं 'भगवान्-जब जीव के सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह कर्म-भार से हलका हो जाता है तब कर्म के बिना भी वह अपने ऊर्ध्वगति-रूप स्वाभाविक परिणाम के कारण एक ही समय में ऊँचे लोकान्त तक पहुँच जाता है। सकल कर्म के विनाश से जैसे जीव को सिद्धत्व पर्याय की प्राप्ति होती है, वैसे ही उक्त ऊर्ध्वगति परिणाम की भी / अतः वह एक ही समय में लोक के अग्रभाग में पहुँच जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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