________________ 112 गणधरवाद [ गणधर होने के कारण नित्य ही है, अतः उसे कृतक कैसे कह सकते हैं ? मुद्गर के उपस्थित होने से आकाश में कोई नवीनता नहीं पाई। फिर घट-विनाश-रूप केवलाकाश को कृतक क्यों कहा जाए ? इसी प्रकार कर्म-विनाश का भाव भी यही है कि कर्मरहित केवल आत्मा ही है। यहाँ तपस्यादि से यात्मा में किसी नवीनता की उत्पत्ति नहीं हुई, क्योंकि आकाश के समान सदा अवस्थित होने से आत्मा नित्य ही है। अतः मोक्ष को अनित्य अथवा एकान्त कृतक नहीं माना जा सकता। यदि तुम मोक्ष को पर्याय दृष्टि से कथंचित् अनित्य मानते हो तो इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है; क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि विश्व के समस्त पदार्थ द्रव्य तथा पर्याय दोनों की अपेक्षा से नित्य और अनित्य हैं / अतः मोक्ष नित्य भी है तथा अनित्य भी / [1836] __ मण्डिक-घड़े के फूट जाने पर उसके कपाल के साथ आकाश का संयोग बना रहता है, इसी प्रकार जीव ने जिन कर्मों की निर्जरा कर दी हो, उनके साथ उसका संयोग बना रहना चाहिए, क्योंकि कर्म और जोव लोक में ही रहते है / फिर जीव व कर्म का बन्ध क्यों नहीं होता? भगवान्-जैसे निरपराधी को कैद नहीं मिलती, वैसे ही आत्मा में भी बन्ध-कारण का अभाव होने से वह पुनः बद्ध नहीं होती। मुक्त जीव अशरीर है, अतः कर्म-बन्ध के कारणभूत मन-वचन-काय का योग न होने से उसका पुनः कर्मबन्ध नहीं होता। केवल कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का आत्मा के साथ संयोग मात्र होने से कर्म-बन्ध नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसी स्थिति में सभी जीवों का समान भाव से कम बन्ध होना चाहिए, कारण यह है कि कर्म-वर्गगा के पुद्गल सर्वत्र विद्यमान हैं। इस प्रकार अतिप्रसंगादि दोष होने के कारण जोव-कर्म-पुद्गतां का केवल संयोग ही कर्म-बन्धन का कारण नहीं माना जा सकता / जीव के मिथ्यात्वादि दोष तथा योग के कारण बन्ध होता है। [1840] मण्डिक–सौगत मानते हैं कि आत्मा बार-बार संसार में आती है, इस विषय में आपका क्या मत है ? मुक पुनः संसार में नहीं आते भगवान्—मुक्त जीव संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, क्योंकि उनमें जन्म के कारण का अभाव है। जैसे बोज के अभाव में अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही जन्म के बीज (कर्म) मुक्तावस्था में नहीं होते, अतः मुक्त जीव सदा मुक्त ही रहते हैं। [1841] पुनश्च, मुक्तात्मा नित्य है क्योंकि वह द्रव्य होने पर भी अमूर्त है, जैसे अाकाश। मण्डिक---अमूर्त द्रव्य होने के कारण आप प्रात्मा को आकाश के समान नित्य मानते हैं। इसी हेतु के आधार पर उसे आकाश के समान ही सर्वव्यापी भी मानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org