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________________ मण्डिक ] बन्ध-मोक्ष-चर्चा कोई भी अभव्य मोक्ष नहीं जाता, अतः अभव्यों में उस योग्यता का अभाव माना जाता है। [1835-36] मोक्ष कृतक होने पर भी नित्य है मण्डिक-यदि मोक्ष की उत्पत्ति उपाय से होती हो तो उसे कृतक (जन्य) मानना चाहिए और जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, नित्य नहीं; अतः घटादि के समान कृतक होने के कारण मोक्ष को भी अनित्य मानना चाहिए। भगवान्-यह नियम व्यभिचारी है कि जो कृतक होता है वह अनित्य ही होता है / घटादि का प्रध्वंसाभाव कृतक होने पर भी नित्य है। यदि प्रध्वंसाभाव को अनित्य माना जाएगा तो प्रध्वं साभाव का अभाव हो जाने के कारण घटादि पदार्थ पुनः उपस्थित हो जाएंगे; अतः प्रध्वंसाभाव कृतक होने पर भी नित्य है। इसी प्रकार कृतक होने पर भी मोक्ष को नित्य मानने में क्या आपत्ति हो सकती है ? 1837] मण्डिक--प्रध्वंसाभाव अभावस्वरूप होने से अवस्तु है, अतः उसके उदाहरण से उक्त नियम बाधित नहीं होता। भगवान् - प्रध्वंसाभाव केवल अभाव-स्वरूप नहीं है, किन्तु वह घट-विनाश से विशिष्ट पद्गल-संघात-रूप है, अतः वह भावरूप वस्तु है। इसलिए उसका उदाहरण दिया जा सकता है / [1838] मोक्ष एकान्ततः कृतक नहीं ___अथवा इस बात को जाने दें। मैं तुम्हारे प्रश्न का समाधान अन्य प्रकार से करता हूँ। तुमने मोक्ष को कृतक कहा है और यह अनुमान किया है कि कृतक होने से उसे अनित्य होना चाहिए। किन्तु मोक्ष का अर्थ इतना ही है कि कर्म जीव से अलग हो जाते हैं, अतः मैं तुमसे पूछता हूँ कि कर्म-पुद्गलों के जीव से मात्र पृथक होने पर जीव में एकान्त रूप से ऐसी क्या विशिष्टता आई कि जिससे तुम मोक्ष को कृतक मानते हो। जैसे आकाश में विद्यमान घड़े को मुद्गर से फोड़ने पर प्रकाश में कोई विशेषता नहीं आती, वैसे ही कर्म को तपस्यादि उपायों से नष्ट करने पर जीव में किसी नई वस्तु को उत्पत्ति नहीं होती है। अतः मोक्ष को एकान्तरूप से कृतक कैसे माना जा सकता है ? मण्डिकाप कर्म के विनाश को मोक्ष कहते हैं। जैसे मुद्गर से घट का नाश होने पर उस विनाश को कृतक माना जाता है, वैसे ही तपस्यादि से किया गया कर्म-विनाश भी कृतक होगा / अतः मोक्ष भी कृतक और अनित्य सिद्ध होगा। __ भगवान् - तुम घट-विनाश और कर्म-विनाश को कृतक मानते हो, किन्तु तुम इन दोनों के स्वरूप को नहीं जानते, इसीलिए उन्हें कृतक कहते हो। वस्तुतः घट-विनाश केवल घट-रहित अाकाश ही है, अन्य कुछ नहीं / आकाश सदा अवस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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