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________________ भीण्डक] बघ-मोक्ष-चर्चा 109 भव्यों का मोक्ष मानने से भी संसार लालो नहीं होता भगवान् -- ऐसा नहीं हो सकता। अनागत काल तथा अाकाश के समान भव्य भी अनन्त हैं, अतः संसार कभी भी भव्यों से शून्य नहीं हो सकता। अनागत काल की समय-राशि में प्रत्येक क्षण कमी होती रहती है, किन्तु वह अनन्त समय प्रमाण है, अतः उसका कभी भी उच्छेद सम्भव नहीं है। अथवा आकाश के अनन्त प्रदेशों में से कल्पना द्वारा प्रति समय एक-एक प्रदेश अलग किया जाए तो भी आकाश के प्रदेशों का उच्छेद नहीं होता / इसी प्रकार भव्य जीव भी अनन्त हैं, प्रत्येक समय उनमें से कुछ के मोक्ष जाने पर भी भव्य-राशि का कभी उच्छेद नहीं होता। [1827] अपि च, अतीत काल तथा अनागत काल का परिणाम समान होता है। अतीत काल में भव्यों का अनन्तवाँ भाग ही सिद्ध हुआ है और वह निगोद के जीवों का अनन्तवाँ भाग है / अतः अनागत काल में भी उतना भाग ही सिद्ध हो सकेगा। कारण यह है कि उसका परिमाण अतीत काल जितना ही है। अतः संसार से कभी भी भव्य जीवों का उच्छेद सम्भव नहीं है, सम्पूर्ण काल में भी भव्य जीवों के उच्छेद का प्रसंग नहीं पाएगा। मण्डिक --किन्तु आप यह कैसे सिद्ध करते हैं कि भव्य अनन्त हैं तथा सर्वकाल में उनका अनन्तवाँ भाग ही मुक्त होता है ? भगवान् --- आकाश तथा काल के समान भव्य जीव भी अनन्त हैं। जैसे इन दोनों का उच्छेद नहीं होता वैसे भव्य जीवों का भी उच्छेद नहीं होता। अतः यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि भव्य जीवों का अनन्तवाँ भाग ही मुक्त होता है। अथवा इस युक्ति की आवश्यकता ही नहीं है। यह बात मैं कहता हूँ, इसलिए भी तुम्हें मान लेनी चाहिए। [1828-30] मण्डिक-मैं आपके कथन को सत्य क्यों मानू ? सर्वज्ञ के वचन को प्रमाण मानो भगवान् -- इतनी चर्चा से तुम्हें यह तो विश्वास हो गया होगा कि मैंने तुम्हारे संशय से लेकर अब तक जो कुछ कहा है, वह सत्य ही है। उसी आधार पर मेरा यह कथन भी तुम्हें यथार्थ मानना चाहिए। अथवा यह समझो कि मैं सर्वज्ञ हूँ (वीतराग हूँ), इस कारण भी तुम्हें मेरी बात मध्यस्थ-ज्ञाता की बात के समान सच्ची माननी चाहिए। [1831] तुम्हारे मन में यह विचार उत्पन्न होगा कि "मैं यह कैसे मानू कि आप सर्वज्ञ हैं।" किन्तु तुम्हारा यह संशय अयुक्त है। कारण यह है कि तुम जानते हो कि मैं सब के सभी संशयों का निवारण करता हूँ। यदि मैं सर्वज्ञ न होऊँ तो सर्वसंशय का निवारण न कर सकू। अतः तुम्हें मेरी सर्वज्ञता के विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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