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________________ 108 मणधेरवाद [गणधर भव्य-अभव्य का भेद मण्डिक-सभी जीव समान हैं, उनमें भव्य-अभव्य का भेद क्यों? यह तो नहीं कहा जा सकता कि सब जोवों के समान होने पर भी जेसे नारक, तिर्यंच आदि भेद होते हैं वैसे ही भव्य-अभव्य का भेद भी सम्भव है / कारण यह है कि जीव के नारकादि भेद कर्मकृत हैं, स्वाभाविक नहीं हैं, किन्तु आप भव्य-अभव्य का भेद कर्मकृत न मान कर स्वाभाविक मानते हैं। अतः प्रश्न होता है कि जीव के ऐसे स्वाभाविक भेद मानने का क्या कारण है ? [1821-22] भगवान्-जैसे जीव तथा आकाश में द्रव्यत्व, सत्व, प्रमेयत्व, ज्ञेयत्व आदि धर्मों के कारण समानता होने पर भो जीवत्व तथा अजीवत्व, चेतनत्व तथा अचेनतत्व आदि के कारण स्वभाव भेद है वैसे ही समस्त जीव जीवत्व की अपेक्षा से समान होने पर भी भव्यत्व तथा अभयत्व को अपेक्षा से स्वभावतः भिन्न होकर भव्य और अभव्य हो सकते हैं। [1823] मण्डिक ---यदि भव्यत्व स्वाभाविक है तो जीवत्व के समान उसे नित्य भी मानना चाहिए तथा यदि भव्यत्व को नित्य माना जाए तो जोव को मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि मुक्त जीवों में भव्य-अभव्य का भेद नहीं होता। [1824] अनादि होने पर भी भव्यत्व का अन्त भगवान्-घटादि कार्य का प्रागभाव अनादि स्वभाव-रूप होने पर भी घटोत्पत्ति होने पर नष्ट हो जाता है, इसो प्रकार भव्यत्व स्वभाव अनादि होने पर भो ज्ञान, तप तथा अन्य क्रियानों के आचरण से नष्ट हो जाता है। [1825] मण्डिक-आपने प्रागभाव का उदाहरण दिया, किन्तु वह खर-विषाण के समान अभाव-रूप होने से अवस्तु है। अतः उसका उदाहरण नहीं दिया जा सकता। भगवान्-उसका उदाहरण दिया जा सकता है। कारण यह है कि घट प्रागभाव अवस्तु नहीं किन्तु वस्तुरूप ही है। वह अनादि काल से विद्यमान एक पुदगल संघात के स्वरूप में है / अन्तर केवल यह है कि वह पुद्गल संघात घटाकार रूप में परिणत नहीं हुआ, इसीलिए उसे घट-प्रागभाव कहते हैं / [1826] मण्डिक-आपके कथनानुसार भव्यद का नाश मान भी लिया जाए तो इसमें एक और आपत्ति है। संसार से भव्यत्व का किसी समय उच्छेद हो जाएगा, जैसे धान्य के भण्डार से थोड़ा-थोड़ा धान्य निकालते रहे तो एक दिन वह खाली हो जाएगा। इसी प्रकार भव्य जीवों के क्रमशः मोक्ष चले जाने पर संसार में भव्य जीवों का अभाव हो जाएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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