________________ मण्डिक ] बन्ध-मोक्ष-चर्चा :07 अपि च, जैसे चेतन की कृषि आदि क्रिया सफल होती है वैसे ही दानादि क्रिया भी सफल होनी चाहिए। उसका जो फल है, वही कर्म है / यह चर्चा अग्निभूति के साथ की ही गई है। जैसे उसने कर्म का अस्तित्व स्वीकार किया, वैसे तुम्हें भी स्वीकार करना चाहिए। [1816] बन्ध अनादि सान्त है पुनश्च, तुमने जो यह बात कही है कि जो अनादि होता है, उसे अनन्त भी होना चाहिए, वह अयुक्त है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि सन्तान अनादि है, इसलिए वह अनन्त भी होनी चाहिए। कारण यह है कि बीज-अंकुर की सन्तान यद्यपि अनादि है तथापि उसका अन्त हो जाता है। इसी प्रकार अनादि कर्म-सन्तान का भी नाश हो सकता है / [1817] मण्डिक-यह कैसे ? भगवान्-बीज तथा अंकुर में से किसी का भी यदि अपने कार्य को उत्पन्न करने से पूर्व ही नाश हो जाए तो बीजाँकुर को सन्तान का भी अन्त हो जाता है / यही बात मुर्गी और अण्डे के विषय में भी कही जा सकतो है कि उन दोनों की सन्तान अनादि होने पर भी उस अवस्था में नष्ट हो जाती है, जब दोनों में से कोई एक अपने कार्य को उत्पन्न करने के पूर्व ही नष्ट हो जाए। [1818] अपि च, सोने तथा मिट्टी का संयोग अनादि सन्ततिगत है, फिर भी अग्नितापादि से उस संयोग का नाश हो जाता है। इसी प्रकार जीव तथा कर्म का अनादि संयोग भी सम्यक् श्रद्धा आदि रत्नत्रय द्वारा नष्ट हो सकता है / [1816] मण्डिक-जीव तथा कर्म का संयोग जीव और आकाश के संयोग के समान अनादि अनन्त है ? अथवा सोने और मिट्टी के समान अनादि सान्त है ? भगवान्-जीव में दोनों प्रकार का संयोग घटित हो सकता है, इसमें कुछ भी विरोध नहीं है। [1820] ___मण्डिक-यह कैसे सम्भव है ? ये दोनों सम्बन्ध परस्पर विरुद्ध हैं। अतः जीव में यदि अनादि अनन्त सम्बन्ध हो तो अनादि सान्त सम्बन्ध नहीं होना चाहिए, अनादि सान्त हो तो अनादि अनन्त नहीं होना चाहिए। दोनों सम्बन्ध एकत्र नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों में विरोध है। भगवान् —मैंने जीव सामान्य की अपेक्षा से यह बात कही है कि उसमें उक्त दोनों प्रकार के सम्बन्ध हैं / जीव विशेष की अपेक्षा से विचार किया जाए तो अभव्य जीवों में अनादि अनन्त संयोग है क्योंकि उनकी मुक्ति नहीं होती है, अतः उनके कर्म-संयोग का नाश कभी भी नहीं होता। भव्य जीवों में अनादि सान्त संयोग है, क्योंकि वे कर्म-संयोग का नाश कर मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता रखते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org