SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 गणधरवाद [ गणधर कारण हैं और उन दोनों को सन्तान अनादि है / फलतः कर्म की सन्तान अनादि सिद्ध होती है। मण्डिक-कर्म की सन्तान चाहे अनादि हो, किन्तु यहाँ जीव के बन्ध-मोक्ष की चर्चा हो रही है। उस चर्चा के साथ इस कर्म-सन्तान के अनादित्व का क्या सम्बन्ध है ? जीव का बन्ध भगवान्–सम्बन्ध है ही, क्योंकि कर्म जो कुछ कराता है वही बन्ध है, अतः कर्म-सन्तान के अनादि सिद्ध होने पर बन्ध भी अनादि सिद्ध होता है [1813-14] मण्डिक-कर्म-सन्तान को अनादि सिद्ध कर आप बन्ध की सम्भावना का कथन करते हैं, किन्तु पाप ने तो शरीर व कर्म में परस्पर कार्यकारण भाव सिद्ध किया है। उससे जोव का क्या सम्बन्ध है ? यह कैसे कहा जा सकता है कि जीव व कर्म का संयोग अनादि है ? भगवान्–शरीर व कर्म का कार्यकारण भाव यथार्थ है, किन्तु यदि कोई कर्ता न हो तो शरीर व कर्म में से किसी की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती। अत: हमें स्वीकार करना चाहिए कि जीव कर्म द्वारा शरीर उत्पन्न करता है, अतः वह शरीर का कर्ता है तथा जीव शरीर द्वारा कर्म को उत्पन्न करता है, अतः वह कर्म का भी कर्ता है, जैसे कि दण्ड द्वारा घट को उत्पन्न करने वाला कुम्भकार घट का कर्ता कहलाता है। इस प्रकार यदि शरीर व कर्म की सन्तान अनादि हो तो जीव को भो अनादि मानना चाहिए और उसके बन्ध को भी अनादि ही समझना चाहिए। [1815] मण्डिक–किन्तु कर्म तो अतीन्द्रिय होने के कारण प्रसिद्ध है, आप उसे कारण कैसे कह सकते हैं ? कर्म-सिद्धि भगवान्-कर्म अतीन्द्रिय होने पर भी प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि कार्य द्वारा उसकी सिद्धि होती है। शरीर आदि की उत्पत्ति का कोई कारण होना चाहिए, क्योंकि वे घटादि के समान कार्य हैं। जैसे घटादि कार्य दण्डादि करण के बिना उत्पन्न नहीं होते, वैसे ही शरीर-रूपी कार्य करगण के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। शरीर कार्य में जो करण है, वहा कर्म कहलाता है। अथवा जीव व शरीर इन दोनों से किसी करण का सम्बन्ध होना चाहिए, क्योंकि उनमें एक कर्ता है और दूसरा कार्य है। जैसे कुम्भकार तथा घट ये दोनों कर्ता-कार्य हैं और दण्ड उनका करण है, वैसे ही प्रात्मा व शरीर कर्ता तथा कार्य-रूप हैं तो उनका कोई करण मानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy