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________________ मण्डिक ] बन्ध-मोक्ष-चर्चा 105 वाले गाय के सींगों में एक को कर्ता तथा दूसरे को कार्य नहीं कहा जा सकता, वैसे ही यदि जीव व कर्म एक साथ उत्पन्न हों तो उनमें भी कर्ता-कर्म का व्यपदेश (व्यवहार) घटित नहीं हो सकता / इस प्रकार तुम यह मानते हो कि जीव व कर्म का संयोग सादि मानने में अनुपपत्ति है / [1806-10] तुम्हें जीव व कर्म का अनादि सम्बन्ध भी अयुक्त प्रतीत होता है। कारण यह है कि उन्हें अनादि मानने पर जीव का मोक्ष कभी भी सम्भव नहीं हो सकता। जो वस्तु अनादि होती है वह अनन्त भी होती है, जैसे कि जीव तथा आकाश का सम्बन्ध अनादि भी है और अनन्त भी। इसी प्रकार जीव व कर्म का सम्बन्ध भी अनादि होने पर अनन्त मानना पड़ेगा। अनन्त होने पर मोक्ष की सम्भावना ही नहीं रहती, क्योंकि कर्म-संयोग का अस्तित्व हमेशा बना रहेगा। [1811] ___इस प्रकार पूर्वोक्त वेदवाक्यों के अतिरिक्त तुम युक्ति के आधार पर भी यही मानते हो कि जीव में बन्ध व मोक्ष घटित नहीं होते, किन्तु वेदवाक्य में इन दोनों के अस्तित्व का भी प्रतिपादन है / अतः तुम्हें वन्ध-मोक्ष की वास्तविक सत्ता में सन्देह है, किन्तु तुम्हें ऐसा संशय नहीं करना चाहिए। मैं तुम्हें इसका कारण बताता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो। [1812] मण्डिक–कृपया मेरे संशय का निवारण करें तथा बताएँ कि मेरी युक्ति में क्या दोष है ? तथा जीव के बन्ध-मोक्ष कैसे सम्भव हैं ? / संशय-निवारण-कर्म-सन्तान अनादि है भगवान्-तुम्हारे द्वारा उपस्थित की गई युक्ति का सार यह है कि जीव व कर्म का सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता। इस विषय का स्पष्टीकरण यह है कि, शरीर तथा कर्म की सन्तान अनादि है, क्योंकि इन दोनों में परस्पर कार्यकारण भाव हैबीजांकुर के समान / जैसे बीज से अंकुर तथा अंकुर से बीज होता है और यह क्रम अनादि काल से चलता पा रहा है, अतः इन दोनों की सन्तान अनादि है; उसी प्रकार देह से कर्म और कर्म से देह को उत्पत्ति का क्रम अनादि-काल से चला आ रहा है, इसलिए इन दोनों की सन्तान अनादि है। अतः तुम्हारे इन विकल्पों का कोई अवकाश नहीं रहता कि जीव पहले या कम पहले / कारण यह है कि उनको सन्तान अनादि है। कर्म को अनादि सन्तान को सिद्धि निम्न प्रकारेण होती है शरीर से कर्म उत्पन्न होता है--अर्थात् कर्म शरीर का कार्य है / किन्तु यदि शरीर ने कर्म को उत्पन्न किया है तो शरीर भी पूर्व-कर्म का कार्य है, अर्थात् वह भी कर्म से उत्पन्न होता है। पूर्व में जिन कर्मों ने कर्मोत्पादक शरीर को उत्पन्न किया, वे कर्म भी पूर्व-शरीर से उत्पन्न हुए होते हैं। अतः कर्म और देह परस्पर कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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