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________________ 104 गणधरवाद [ गणधर उत्पन्न होता है ? अथवा 2. प्रथम कर्म और तदुपरान्त जीव उत्पन्न होता है ? अथवा 3. वे दोनों साथ ही उत्पन्न होते है ? [1805] इस प्रकार तुम सादि-बन्ध के विषय में तीन विकल्पों की कल्पना करके यह मानते हो कि इन तीनों अपेक्षानों से सादि-बन्ध की सिद्धि नहीं होती। इस सम्बन्ध में तुम ये युक्तियाँ देते हो। जोव कर्म से पूर्व नहीं हो सकता 1. कर्म से पहले आत्मा की उत्पत्ति शक्य नहीं हो सकती। कारण यह है कि खर-शृंग के समान उसका कोई हेतु नहीं है। यदि प्रात्मा को उत्पत्ति निर्हेतुक मानी जाए तो उसका विनाश भी निर्हेतुक मानना होगा। [1806] यदि कोई कहे कि जीव तो अनादि सिद्ध है. अतः उसको उत्पत्ति का विचार ही युक्त नहीं; तो तुप उसका समाधान ऐसे करते हो कि जोव के अनादि सिद्ध होने पर उसका कर्म से संयोग ही नहीं होगा, क्योंकि वह संयोग कारण-शून्य होगा / यदि कारण के अभाव में भी जीव का कर्म-संयोग माना जाए तो मुक्त जोव का भी कर्म-संयोग स्वीकार करना पड़ेगा; क्योंकि उसमें भी वह कारण-शून्य होगा। यदि मुक्त भी पुनः बद्ध होते हों तो लोग ऐसी मुक्ति में विश्वास ही क्यों रखेंगे ? अतः जीव का बन्ध अहेतुक नहीं हो सकता। [1807] तथा यदि जीव का बन्ध ही न माना जाएगा तो उसे नित्य मुक्त ही मानना पड़ेगा अथवा बन्ध के अभाव में उसे मुक्त भो कैसे कह सकते हैं ? क्योंकि मोक्षव्यवहार बन्ध-सापेक्ष ही होता है। जैसे आकाश में बन्ध नहीं है तो मोक्ष भी नहीं है, वैसे जीव में भी बन्ध के अभाव में मोक्ष का भी प्रभाव होगा। इस प्रकार तुम मानते हो कि जीव को कर्म से पहले स्वीकार करने पर बन्ध-मोक्ष व्यवस्था घटित नहीं होती है / [1808] . कर्म जीव से पहले सम्भव नहीं 2. तुम्हारे मतानुसार जीव से पहले कर्म की उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है। कारण यह है कि जीव कर्म का कर्ता माना जाता है / यदि कर्ता ही न हो तो कम कैसे हो सकता है ? तथा जीव के समान ही कर्म की निर्हेतुक उत्पत्ति शक्य नहीं हो सकती। यदि कर्म को उत्पत्ति बिना किसी कारण से मानी जाएगी तो उसका विनाश भो कारण-विहीन मानना पड़ेगा। उत्पत्ति या विनाश निर्हेतुक नहीं हो सकते / अतः कर्म को जीव से पहले नहीं माना जा सकता। जोव तथा कर्म युगपद् उत्पन्न नहीं हैं 3. यदि जीव और कर्म दोनों युगपद् उत्पन्न हों तो जीव को कर्ता तथा कर्म को उसका कार्य नहीं कहा जा सकता। जैसे लोक में एक साथ उत्पन्न होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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