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________________ छठे गणधर मण्डिक बन्ध-मोक्ष-चर्चा उन सब के दीक्षित होने का समाचार ज्ञात कर मण्डिक ने विचार किया कि मैं भगवान् के पास जाऊँ, उन्हें नमस्कार करू तथा उनकी सेवा करू। यह विचार कर वह भगवान् के पास गया। [1802] जाति-जरा-मरण से रहित भगवान् ने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होने के कारण उसे 'मण्डिक वसिष्ठ !' कह कर सम्बोधित किया। [1803] बन्ध-मोक्ष का संशय तथा उसे कहा-वेद में एक वाक्य है स एष विगुणो विभुन बध्यते संसरति वा, न मुच्यते मोचयति वा, न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा वेद' इससे तुम्हें यह प्रतीत होता है कि जीव के बन्ध और मोक्ष नहीं होते। किन्तु एक दूसरा वाक्य यह है-न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिय योरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः।' इससे तुम यह समझते हो कि जीव सशरीर और अशरीर इन दो अवस्थाओं को प्राप्त होता है, अर्थात् जीव के बन्ध व मोक्ष हैं। इस प्रकार वेद वाक्यों का कथन परस्पर विरोधी होने से तुम्हारे मन में सन्देह है कि वस्तुतः जीव के बन्ध व मोक्ष होते हैं या नहीं। किन्तु तुम उक्त वाक्यों का यथार्थ अर्थ नहीं जानते, इसीलिए तुम्हें यह सन्देह है, मैं तुम्हें उनका ठीक-ठीक अर्थ बताऊँगा। [1804] अपि च, तुम युक्ति से भी बन्ध-मोक्ष का अभाव सिद्ध करते हो, किन्तु वेद में उनका सद्भाव प्रतिपादित किया है। इसलिए भी तुम्हें संशय होता है कि बन्ध-मोक्ष की सत्ता है या नहीं। बन्ध-मोक्ष के विरोध में तुम ये युक्तियाँ देते हो यदि जीव का कर्म के साथ संयोग ही बन्ध है तो वह बन्ध सादि है या अनादि ? यदि वह सादि है तो प्रश्न होता है कि 1. प्रथम जीव तथा तत्पश्चात् कर्म 1. अर्थात यह अात्मा सत्वादि गुणरहित विभु है / उसे पुण्य पाप का बन्ध नहीं होता अथवा उसका संसार नहीं है। वह कर्म से मुक्त नहीं होता, कर्म को मुक्त नहीं करता; अर्थात् वह अकर्ता है। वह बाह्य या प्राभ्यन्तर कुछ भी नहीं जानता, क्योंकि ज्ञान प्रकृति का धर्म है। 2. अर्थात् सशरीर जीव के प्रियाप्रिय का, सुख-दुःख का नाश नहीं होता, किन्तु अशरीर अमूर्त जीव को प्रियाप्रिय का, सुख-दुःख का स्पर्श भी नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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